Book Title: Jain Gita
Author(s): Vidyasagar Acharya
Publisher: Ratanchand Bhayji Damoha

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Page 144
________________ किंवा धरा सलिल, लोचन गभ्य छाया, नासादि के विषय पुद्गल कर्म माया । अत्यन्त सूक्ष्म परमाणु, छहो यहाँ ये, है स्कन्ध भेद जड़ पुद्गल के बताये ॥६४२।। जो द्रव्य होकर न इन्द्रिय गम्य होता, है आदि मध्य अरु अन्त विहीन होता । है एक देश रखता अविभाज्य भाता, ऐसा कहे जिन यही परमाणु गाथा ॥६४३।। जो स्कन्ध में वह क्रिया अणु में इसी से, तू जान पुद्गल सदा अणु को खुशी से । स्पर्शादि चार गुण पुद्गल धार पाता, है पूरता पिघलता पर स्पष्ट भाता ॥६४४॥ प्रो जीव है, विगत में चिर जी चुका है, जो चार प्राण धर के अब जी रहा है । मागे इसी तरह जीवन जी सकेगा, उच्छ वास-प्रायु-बल इन्द्रिय पा लसेगा ॥६४।। विस्तार संकुचन शक्तितया शरीरी, छोटा बड़ा तन प्रमाण दिखे विकारी ! पै छोड़ के ससुदधात दशा हितंषी ! हैं वस्तुतः सकल जीव प्रसंख्य देशी ॥६४६॥ ज्यों दूध में पतित माणिक दूध को ही, है लाल-लाल करता सुन मूढ़ मोही ! त्यों जीव देह स्थित हो निज देह को ही, सम्यक् प्रकाशित करें नहिं अन्य को ही ॥६४७।। [ १२४ )

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