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राष्ट्रानुकूल चलना "कर" न चुराना, ले चौर्य द्रव्य नहिं चोरन को लुभाना । धंधा मिलावट करो न, प्रचौर्य पालो, हा ! नापतोल नकली न कभी चलालो ॥३१॥ स्त्री मात्र को निरखते अविकारता से, क्रीड़ा अनंग करते न निजी प्रिया से । होते कदापि न हि अन्य-विवाह पोषी, कामी प्रतीव बनते न स्वदारतोषी ॥३१४॥ निस्सीम संग्रह परिग्रह का विधाता, है दोष का, बस रमानल में गिराता। तृष्णा अनन्त बढ़ती सहसा उसी से, उद्दीप्त ज्यों अनल दीपक तेल-घी से ॥३१५।। ग्राहस्थ्य के उचित जो कुछ काम हैं सागार सीमित परिग्रह को रखे हैं। सम्यक्त्व धारक उमे न कभी बढ़ावें रागाभिभूत मन को न कभी बनावें ।।३१६।। प्रत्यल्प ही कर लिया परिमाण भाई ! लेऊ पुनः कुछ जरूरत जो कि प्राई ऐसा विचार तक ना तुम चित्त लामो संतोष धार कर जोवन को चलामो ॥३१७॥ है सात शील व्रत श्रावक भव्य प्यारे ! सातों व्रतों फिर गुणबत तीन न्यारे । देशावकाशिक दिशा विरती सुनो रे ! आनर्थ दण्ड विरती इनको गुणो रे ! ॥३१।। सीमा विधान करना हि दसों दिशा में, माना गया वह दिगावत है घरा में । प्रारम्भ सीमित बने इस कामना से, सागार साधन करे इसका मुदा से ॥३१९॥
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