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ये दीखते जगत में मुनिसाधुत्रों के, है भेष, नेक विध भी गृहवासियों के ! वे अज्ञ मूढ़ जिनको जब धारते हैं, है मोक्ष मार्ग यह यों बस मानते है || ३५८ ।। निस्सार मुष्टि वह अन्दर पोल वालीबेकार नोट यह है नकली निराली । हो काँच भी चमकदार सुरत्न जैसा, ज्यों जोहरी परखता नहि मूल्य पंसा । पूर्वोक्त द्रव्य जिस भांति मुधा दिखाते, है मात्र भेष उस भाँति सुधी बताते ।। ३५९ ।।
गुण दोष हेतु, सिन्धु मेतु ॥ ३६० ॥
है भाव लिङ्ग वर मुख्य श्रतः मुहाता, है द्रव्य लिङ्ग परमार्थ नही कहाता । है भाव ही नियम से होता भवोदधि वही भव ये " भाव शुद्धतम हो" जब लक्ष होता, है बाह्य संग तजना फलरूप होता । जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, तो बाह्य त्याग उसका वह व्यर्थ जाना ।।३६१।। जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पातं,
बाहरी सव परिग्रह को हटाने । वं भाव- शून्य करनी करते कराते, लेते न लाभ शिव का दुख ही उठाते । ३६२|| कापायिकी परिणती जिसने घटा दी,
श्रौ निन्द्य जान तन की ममता मिटा दी । शुद्धात्म में निरत है तज गंग संगी, हो पूज्य साधु वह पावन भाव लिगी ।। ३६३॥
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