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मा को यथा तनुज, कार्य प्रकार्य को भी, है सत्य, सत्य कहता, उर पाप जो भी, मायाभिमान तज, साधु तथा श्रघों कीगाथा कहें, स्वगुरु को, दुखदायकों की ॥ ४६२ ॥
में जो,
हो ।
ज्यों ही निकाल उनको हम फेंक देते, त्यों हो सुशीघ्र सुखसिंचित स्वास लेते ||४६३॥
हैं शल्य शूल चुभते जब पाद दुर्वेदनानुभव पूरण अङ्ग
में
जो दोष को प्रकट ना करता छुपाता, मायाभिभूत यति भी प्रति दुःख पाता । दोषाभिभूत मन को गुरु को दिखाम्रो निःशल्य हो विमल हो सुख शांति पाओ ॥ ४६४
विराम पावें,
सहसा सुहावें । चेतना में
आत्मीय सर्व परिणाम वे साम्य के सदन में डूबो लखो बहुत भीतर श्रालोचना बस यही जिन देशना
में ॥ ४६५ ॥
प्रत्यक्ष-सम्भख सुत्री गुरु सन्त आते होना खड़े कर जुड़े शिर को झुकाते । दे प्रासनादि करना गुरु भक्ति सेवा, माना गया विनय का तप प्रो सदेवा ||४६६ ॥
चारित्र, ज्ञान, तप, दर्शन, श्रौपचारी,
ये पांच हैं विनय भेद, बारो इन्हें विमल निर्मल दुःखावसान, सुख आगम शीघ्र होगा || ४६७ ||
[ ε• ]
प्रमोदकारी ।
जीव होगा,