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हो बन्द, पोतगत छेद सभी सही है !!! पानी प्रवेश करता उसमें नहीं है। मिथ्यात्व प्रादि मिटने पर शीघ्रता से हो कर्म संवर निजातम साम्यता से॥६०६॥
रोके नितान्त जिनने विधि द्वार सारे, होते जिन्हें निज समा ग जीव प्यारे । वे संयमी परम संवर को निभाते, हैं पापरूप विधि-बन्धन को न पाते ॥६०७॥
मिथ्यात्वरूप विधि द्वार खुले न भाई, तू शीघ्र से दृग कपाट लगा भलाई । हिसादि द्वार, व्रतरूप कपाट द्वारा, हे ! भव्य बन्द कर दे, सुख पा अपारा॥६०८॥
होता जलास्रव जहाँ तुम बांध डालो, प्राये हुये सलिल बाद निकाल डालो। तालाब में जल लबालब हो भले ही, प्रो सूखता सहज से पल में टले ही ॥६०९॥
हो संयमी परम प्रातम शोषता है, संपूर्ण पापविधि प्रास्रव रोकता है, निधान्त कोटि भव संचित कर्म सारे, होते विनष्ट, तप से क्षण में विचारे ॥६१०॥
पाये बिना परम संवर को तपस्वी, पाता न मोक्ष तप से कहते मनस्वी। आता रहा सलिल बाहर से सदा प्रो, क्या सूखता सर कभी ? तुम ही बतानो ॥६११ ।
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