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२४ भ्रमण धर्म सूत्र
प्यारे,
सारे ।
ये वीत राग अनगार भदंत साघू ऋषी श्रमण संयत सन्त शास्त्रानुकूल चलते हमको चलाते, वन्दूं उन्हें विनय से शिर को झुकाते ||३३६।।
गंभीर नीर निधि से, शशि से सुशान्त, सर्वसहा प्रवनि से, मणि मज़ुकान्त । तेजो मयी अरुण से, पशु से निरीह, प्रकाश से निरवलम्बन ही सदीह ॥ १ ॥
कदापि ।
निस्संग वायु समा, सिंह समा प्रतापी, स्थाई रहे उरग से न कही अत्यन्त ही सरल हैं मृग मे, जो भद्र है वृषभ मे गिरि में
स्वाधीन माधु गज मादृश स्वाभिमानी वे मोक्ष गोध करते सुन सन्त वाणी । ३३७ ।।
है लोक में कुछ यहाँ फिरते भाई तथापि मत्र मै तो श्रमाधु-जन को पं माधु के. स्तवन मैं
मुडोल अडोल ||२||
॥२॥
श्रमाधु,
वे कहलाते माधु । कह दूँ न माधु मन को लगा हूँ ॥ ३३८ ॥
सम्यक्त्व के मदन हो गोभ सुमप्रमतया तप मे ऐसे विशेष गुण ग्राकर हो तो वारम्वार गिर मैं उनकी
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वर-बोध-धाम,
ललाम ।
मुमाधु, नवा दु ||३३९||