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एकान्त मे मुनि, न कानन-वास में हो म्वामी नहीं श्रमण भी कचलोच में हो। प्रोंकार जाप जप, ब्राम्हण ना बनेगा, छालादि को पहन तापस ना कहेगा ॥३४०
विज्ञान पा नियम में मुनि हो यशस्वी, सम्यक्तया तप तपे तब हो तपस्वी । होगा वही श्रमण जो समता धरेगा, पा ब्रम्हचर्य फिर ब्राम्हण भी बनेगा ॥३४॥
हो जाय साधु गुण, पा गुण खो प्रमाधु, होवो गुणी, अवगुणी न बनो न म्वादु । जो गग रोष भर में ममभाव धारें,
वन्य पूज्य निज में निज को निहारें ||३४२।।
जो देह में रम रहें विषयी कषायी, शुद्धास्म का स्मरण भी करते न भाई ! वे साधु होकर बिना दृग, जी रहे हैं, पीयूष छोरकर हा ! विष पी रहे है ॥३४३।।
भिक्षार्थ भिक्षु चलते बहु दृश्य पाते, मच्छे दुरे श्रवण में कुछ शब्द पाते । में बोलते न फिर भी सुन मौन जाते माते न हर्ष मन में न विषाद लाते ॥३४४।।
स्वाध्याय ध्यान तप में प्रति मग्न होते, जो दीर्घ काल तक हैं निशि में न मोते । तत्वार्थ चितन मदा करते मनस्वी, निद्राजयः इमलिए बनते तपम्वी ॥३४॥
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