________________ थोड़ा रहा ऋण, रहा वृण मात्र छोटा, हैं राग, भाग लघु यों कहना हि खोटा। विश्वास क्यों कि इनपे रखना बुरा है, देते सुशीघ्र बढ़ के दुख मर्मरा हैं // 134 // ना क्रोध के निकट "प्रेम" कदापि जाता, है मानसे विनय शीघ्र विनाश पाता। माया विनष्ट करती जग मित्रता को, प्रागा विनष्ट करती सब सभ्यता को // 135 // क्रोधाग्नि का गमन गीघ्र करो क्षमा से रे ! मान मर्दन करो तुम नम्रता मे। धारो विशुद्ध ऋजुता मिट जाय माया, संतोप में रति करो तज लोभ जाया // 136 / / ज्यों देह में मकल अग उपांग को, लेता समेट कछवा, लव मंकटों को। मेधावि-लोग अपनी सब इन्द्रियों को लेने ममेट निज में भजते गुणों को / 137 // अजान मान वश दी कुछ ना दिखाईमानो, अनर्थ घटना घट जाय भाई। मद्यः उसी ममय ही उम की मिटाम्रो आगे कदापि फिर ना तुम भूल पायो / / 138 / / जो धीर धर्म रथ को रुचि में चलाता, है ब्रह्मचर्य मर में डुबकी लगाता। पाराम धर्ममय जो जो जिमको मुहाता, धर्मानुकूल विचरें मुनि मोद पाता / / 139 / / पद्यानुवाद