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१७ रत्नत्रय सूत्र (प्रा) व्यवहार रत्नत्रय तत्वार्थ में रुचि हुई, दृग हो वहीं से, सज्ज्ञान हो मनन पागम का सही से । सच्चा तपश्चरण चारित नाम पाता, है मोक्ष मार्ग व्यवहार यही कहाता ।।२०।। श्रद्धान लाभ, बुध दर्शन मे लुटाता, विज्ञान से सब पदार्थन को जनाता । चारित्र धार विधि आस्रव रोध पाता, अत्यन्त शुद्ध निज को तप से बनाता ।।२०९।। निस्सार है चरित के बिन, ज्ञान सारा, मम्यक्त्व के बिन, रहा मुनि भेप भारा । होता न मंयम के बिना तप कार्यकारी, ज्ञानादि रत्न त्रय है भव दुःग्व हारी ॥२१०।। विज्ञान का उदय हो दृग के विना ना, होते न ज्ञान बिन मित्र ! चरित्र नाना । चारित्र के विन न हो शिव मोक्ष पाना. तो मोक्ष के विन कहाँ सुख का ठिकाना ।।२११।।
हा! अज्ञ की सब क्रिया उलटी दिशा है भाई क्रिया रहित ज्ञान व्यथा वृथा है पंगु लखें अनल को न बचे कदापि, दौडे भले ही वह अन्ध जले नथापि ॥२१॥
विज्ञान संयम मिले फल हाथ आता, हो एक चक्र रथ को चल ग्रो न पाता । होवे परस्पर महायक पगु अन्धा , दावाग्नि से बच सके कहने जिनंदा ।।२१३।।
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