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जो सर्व-इन्द्रिय जयी मित भोज पात, एकान्त में शयन प्रासन भी लगाते रागादि दोष, उनको लख काँप जाते पीते दवा उचित, रोग विनाश पाते ॥ २९४ ॥
श्रा, व्याधियां न जब लौं तुमको सताती । प्राती जरा न जब लौ तन को सुखाती । ना इन्द्रियाँ शिथिल हों जब लो तुम्हारी धारो स्वधमं तब लौ शिव सौम्यकारी ॥ २९५॥
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