________________
चक्री बनो सुकृत से, सुर सम्पदायें, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासतायें। पं पण्य से परम पावन प्राण प्यारा, लम्यक्त्व हा! न मिलता मुख का पिटारा ॥२०४।।
देवायुपूर्ण दिवि में कर देव आते, व देव से अवनि पे नर योनि पाते भोगोपभोग गह जीवन हैं बिताते यो पुण्य का फल हमें गुरु है बताते ।।२०५॥
वे भोग भोग कर भी नहि फूलते हैं, मक्वी समा विपय में नहि झलते हैं। मंस्कार है विगत के जिससे सदीव यात्माचतन सुधी करते अतीव ।।२०६॥
पाना मनुष्य भव को जिनदेशना को, श्रद्धा ममेत मुनना तप माघना को । वे जान दुर्लभ इन्हें बुघलोक सारे, काटे कुकर्म मनि हो शिव को पधारे ॥२०७।।
[
४२ ]