________________ प्रोत्रित्य है न पर के वध बंधनों मे, में हो रहा दमित जो कि युगों युगों से। होगा यही उचित, मंयम योग धारू, विश्वाम है, म्वयम पे जय शीध्र पाऊँ / / 12 / / हो एक में विरति तो रति एक से हो, प्रत्येक काल मव कार्य विवेक मे हो। ले लो प्रभी तुम प्रसंयम से निवृत्ति, सारे करो मनत मंयम में प्रवृत्ति // 129 / / हैं. राग रोप अघकोष नही मुहाने, ये पाप कर्म, मवमे महमा कराते / योगी इन्हें नज, जभी निज धाम जाते, प्राने न लौट भव में, मुख चैन पाते / / 130 // लो, ज्ञान ध्यान तप संयम साधनों को, हे माधु ! इन्द्रिय-कपाय-निकाय रोको / घोड़ा कदापि रुकता न बिना लगाम, ज्यों ही लगाम लगता, बनता गुलाम / / 131 // चारित्र में जिन समान बने उजाले, वे वीतराग, उपशान्त कषाय वाले। नीचे कपाय उनको जब है गिराती, जो हैं मराग, फिर क्या न उन्हें नचाती ? // 132 / / हा ! साधु भी समुपशान्त कषाय वाला, होता कपाय वश मंद विशुद्धिवाला / विश्वासभाजन कषाय अतः नही है, जो पा रही उदय में प्रथवा दबी है // 133 / / समणसुतं