Book Title: Jain Dharm Darshan Part 03
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 13
________________ राज्याधिकार देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। * पांचवा भव :- प्रभु ऋषभदेव का जीव महाबल का शरीर ईशान के देवलोक में स्वयंप्रभ विमान में ललितांग नामक देव हुआ। अनेक प्रकार के सुखोपभोगों में समय बिताया और आयु समाप्त होने पर देव देह का त्याग किया। * छट्ठा भव :- छट्ठे भव में प्रभु ऋषभदेव का जीव वहां से च्यवकर पूर्व महाविदेह के अंदर लोहार्गल नगर में सुवर्णजंध राजा और लक्ष्मीवती रानी के पुत्रपने उत्पन्न हुआ । उसका नाम वज्रजंध रखा गया। उसका व्याह वज्रसेन राजा की पुत्री श्रीमती के साथ हुआ। वज्रजंध जब युवा हुआ तब उसके पिता उसको राज्य गद्दी सौंपकर साधु हो गये । वज्रजंध न्यायपूर्वक शासन और राज्य लक्ष्मी का उपभोग करने लगा। एक दिन शाम के समय संध्या का बदलता स्वरुप देखकर वैराग्यवान् हुआ और यह निश्चय किया कि प्रभात में पुत्र को राज्य शासन सौंपकर दीक्षा अंगीकार करूंगा। उधर वज्रजंध के पुत्र ने राज्य के लोभ से, धन का लालच देकर मंत्रीयों को फोड लिया और राजा को मारने का षडयंत्र रचा। आधी रात के समय राजकुमार ने वज्रजंध के शयनागार में विषधूप कर राजा और रानी को मार डाला। * सातवाँ और आठवाँ भव: राजा और रानी त्याग की शुभ कामनाओं में मरकर उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिक के रुप में पैदा हुए। वहां से आयु समाप्तकर दोनों सौधर्म देवलोक में अति स्नेह वाले देवता हुए। दीर्घकाल तक सुखोपभोग कर दोनों ने देवपर्याय का परित्याग किया। * नौवाँ भव :- • वहां से श्री ऋषभदेव का जीव जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठितनगर में सुविधि वैद्य का पुत्र जीवानंद नाम का हुआ। उसी समय नगर में चार लडके और भी उत्पन्न हुए । उनके नाम क्रमशः महीधर, सुबुद्धि, पूर्णभद्र और गुणाकर थे। श्रीमती का जीव भी देवलोक च्यवकर उसी नगर में ईश्वरदत्त सेठ का केशव नामक पुत्र रुप में उत्पन्न हुआ। ये छः अभिन्न हृदय मित्र थे। जीवानंद अपने पिता की भांति बहुत ही अच्छा वैद्य हुआ । एक समय सब मित्रजन वैद्य के घर पर बैठे हुए थे। वहां एक कोढ़ रोगी साधु आहार के लिए आये, उनको देखकर पांचों मित्रों ने वैद्य मित्र की निंदा की • वैद्य तो प्रायः निर्दय और लोभी होते हैं, जहां कहीं स्वार्थ देखे वहीं पर दवाई करते हैं, यदि वैद्य धर्मात्मा हो तो ऐसे पुण्य क्षेत्र मुनि महाराज की औषधि से सेवा क्यो नहीं करते ? यह सुनकर वैद्य ने कहा- मैं सेवा करने को तैयार हूँ। लक्षपाक तैल तो मेरे पास है मगर रत्नकम्बल और गोशीर्ष चंदन मेरे पास नहीं है, यदि ये दो वस्तुएं हो तो इन महात्मा की मैं अच्छी तरह वैय्यावच्च करूं। यह सुनकर ढाई लाख द्रव्य लेकर छःओ मित्र दुकान पर गये, वह द्रव्य वृद्ध सेठ के आगे रखकर रत्नकम्बल और गोशीष चंदन मांगा, तब सेठ ने पूछा ये दोनों वस्तुएं तुम किस कार्य के लिए लेने आये हो ? उन्होंने कहा मुनिराज की सेवा के लिए। यह सुनकर सेठ ने उनकी प्रशंसा की और वह धन धर्मार्थ कर रत्नकम्बल तथा गोशीर्ष चंदन देकर सेठ ने दीक्षा ले ली। अब वे छः ओ मित्र औषध लेकर वन के अंदर गये, वहां पर काउस्सग्ग ध्यान में स्थित कुष्टि मुनि के चमडी के ऊपर वैद्य ने लक्षपाक तैल का मालिश कर ऊपर चंदन का विलेपन किया। बाद में रत्नकम्बल से शरीर ढक दिया। कंबल शीतल था इसलिए चमडी के सारे कीडे उसमें आ गये। जीवानंद ने धीरे से कंबल को उठाकर गाय के मुर्दे पर डाल दिया। इसी तरह दूसरे मालिश से मांस के और तीसरे मालिश से हड्डी में रहे हुए सर्व कीडे निकल गये, पश्चात् उन छिद्रों पर संरोहिणी औषधि का लेप कर दिया गया, इससे महात्मा का शरीर सुवर्ण जैसा हो गया। इस तरह उन मुनि को रोग रहित करके वे छः मित्र अपने स्थान पर वापिस चले गये। रत्नकम्बल के बिक्री के आया हुआ धन सात क्षेत्रों में व्यय कर दिये, बाद में उन छः ओ मित्रों ने चारित्र ग्रहण कर उसका निर्दोषः पालन किया । अन्त समय में उन्होंने संलेखना करके अनशन व्रत ग्रहण किया और आयु समाप्त होने पर उस देह का परित्याग किया। For Personal & Private Use Only 9 www.jainelibrary.org

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