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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अवस्थाएँ, अर्थात् उपशांत मोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली नियमतः तनावमुक्ति की अवस्था है, क्योंकि इन अवस्थाओं में राग-द्वेष तथा क्रोध, मान, माया, लोभ की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है । यह सत्य है कि ग्यारहवें गुणस्थान में व्यक्ति मोह के शांत होने पर कुछ समय के लिए तनावमुक्त हो जाता है, किन्तु उसकी यह स्थिति स्थाई नहीं होती। मोह का उदय होने पर वह पुनः तनावग्रस्त बन जाता है, किन्तु शेष तीन अवस्थाओं में तनावमुक्त होने पर पुनः तनावग्रस्त नहीं होता है।
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चित्तवृत्तियाँ और तनाव
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा प्रणीत 'झाणाज्झययन' नामक ग्रन्थ में चित्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है - "जं चलं तं चित्तं", अर्थात् जो चंचल है, वह चित्त है। दूसरे शब्दों में . आत्मा की पर्याय - दशा को ही चित्त कहा गया है। चित्तवृत्तियों की यह चंचलता वस्तुतः तनाव का मुख्य कारण है । चित्त वृत्तियों की इस चंचलता का जन्म चैतसिक-पर्यायों के रूप में होता है । मन में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष और कषाय के भाव चैतसिक - वृत्तियों को चंचल बना देते हैं । इस चंचलता में भोगाकांक्षाएँ जन्म लेती हैं। वस्तुतः, ये भोगाकांक्षाएँ ही तनावरूप होती हैं। इस प्रकार, चित्त की चंचलता में विभिन्न इच्छाओं और आकांक्षाओं का जन्म होता है, जो अपनी पूर्ति की अपेक्षा रखती हैं । अपूर्ण इच्छाएँ और आकांक्षाएँ तनाव को जन्म देती हैं, मात्र यही नहीं, पूर्ण इच्छाओं की स्थिति में भी उनके पुनः पुनः भोग की अपेक्षा तो बनी रहती है। वे सभी आकांक्षाएँ नवीन आकांक्षाओं को जन्म देती रहती हैं और इससे तनाव का जन्म होता है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है - जहाँ इच्छा, आकांक्षा रही हुई है, वहाँ तनाव अपरिहार्य है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, तनाव मात्र इच्छा या आकांक्षा की पूर्ति की अपेक्षा ही नहीं रखता है, अपितु इनके माध्यम से पुनः उत्पन्न नवीन इच्छाओं और आकांक्षाओं का एक वर्तुल (चक्र) खड़ा कर लेता है। यह अंतहीन चक्र चलता " रहता है । जैनदर्शन में इसे अनन्तानुबन्धी- कषाय-चक्र कहा गया है। अतः, जहाँ तनावों को समाप्त करने की बात है, वहाँ सबसे पहले यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपनी चंचल चित्तवृत्ति को या तो एकाग्र करे, या उनका उच्छेद करे। इसका परिणाम यह होगा कि जब चित्तवृत्तियाँ साक्षीभाव में स्थित होंगी, तो उनसे नवीन इच्छाओं, आकांक्षाओं या अपेक्षाओं का जन्म नहीं होगा और
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