Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 305
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति स्वस्वभाव नहीं हो सकता, जो स्वस्वभाव नहीं हो सकता है, वह धर्म भी नहीं है, अपितु अधर्म ही है । धर्म वह है, जिसमें व्यक्ति अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में अपने मन को, अपनी चेतना को निराकुल बनाए रखें तथा मानसिक समता व शांति को भंग नहीं होने दे । यही तनावमुक्ति का प्रयास है । आदरणीय गोयनकाजी ने बहुत ही सुन्दर बात कहकर कुछ ही पंक्तियों में तनावमुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया है - सुख दुःख दोनों एक से, मान और अपमान । चित्त विचलित होवे नहीं, तो सच्चा कल्याण ।। जीवन में आते रहें, पतझड़ और बसंत । मन की समता न छूटे, तो सुख शांति अनंत । । विषम जगत में चित्त की समता रहे अटूट । तो उत्तम मंगल जगे, होये दुःखों से छूट । । लेश्या - परिवर्तन से तनावमुक्ति लेश्याओं के परिवर्तन करने की प्रक्रिया ही सही रूप में तनावमुक्ति की प्रक्रिया है। जैनधर्म भावना - प्रधान धर्म है। लेश्या का सिद्धांत भी भावों पर ही निर्भर है। जैसे भाव होते हैं, वैसी ही उसकी लेश्या होती है। भाव - परिवर्तन के साथ ही लेश्या परिवर्तन होता है, साथ ही लेश्या - परिवर्तन से भी भाव - परिवर्तन हो सकता है। दोनों ही एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं। भाव शुभ या शुद्ध हो, तो लेश्या स्वतः ही शुभ या शुद्ध हो जाती है। जैनदर्शन में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। राजा प्रसन्नचंद्र ने सारा राजपाट छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली। एक समय जब वे ध्यान में खड़े थे, तब उधर से राजा श्रेणिक अपनी सेना के साथ भगवान् महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे, तभी एक सैनिक ने कहा"देखो, यह वही राजा है, जिसने अपने पुत्र को अल्प आयु में छोड़कर दीक्षा ले ली और अब मंत्रीगण उस बालक को मारकर राज्य हड़पने की साजिश कर रहे हैं।" इधर राजा श्रेणिक ने भगवान् महावीर को वन्दना करके पूछा कि मुनि प्रसन्नचन्द्र काल करके कहाँ जाएंगे, तब प्रभु ने कहा "अगर अभी काल करें, तो सातवीं नरक में जाएंगे।" राजा ने पुनः प्रश्न किया "प्रभु ! उन्होंने तो धर्म आराधना की है, तो वे नरक में क्यों — 303 Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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