Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 314
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति अनुभव से, तैजस लेश्या के स्पन्दनों की अनुभूति से, अन्तर्जगत् की यात्रा प्रारम्भ होती है। 629 312 व्यक्ति में तनाव उत्पन्न होने का स्थल मन है और उसकी अनुभूति मानसिकता को दुर्बल बना देती है। लाल रंग के ध्यान से तेजो- लेश्या के परमाणु बनते हैं, तब व्यक्ति में शक्ति का संचार होता है, जिससे उसकी सहनशीलता बढ़ती है, मन की दुर्बलता समाप्त हो जाती है, तनावयुक्त स्थिति से बाहर आने की और उनको समाप्त करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। मनुष्य का मन इतना कोमल और नाजुक है, कि वह थोड़ी भी प्रतिकूल स्थिति को सह नहीं सकता, वह टूट जाता है, तनावग्रस्त हो जाता है। इस दुर्बल मन को लाल रंग के ध्यान से शक्तिशाली मन के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। शक्तिशाली मन हर परिस्थिति में घबराता नहीं है, अपितु स्वयं के मनोबल को और मजबूत करता है। तनावपूर्ण स्थिति में भी स्वयं को तनावमुक्त बनाने का प्रयास करता है और जिसमें वह सफल भी होता है। डॉ. शांता जैन के विचार हैं कि यदि जड़ता, अवसाद, भय, उदासी की भावनाओं पर नियंत्रण करना हो; वासनाओं और इच्छाओं पर विजय पाना हो, घृणा, क्रोध, स्वार्थता, लालच, निर्दयता, मारकाट की प्रवृत्ति आदि निषेधात्मक वृत्तियों, जो तनाव के हेतु हैं, से मुक्त होना हो, तो लाल रंग का ध्यान करना उपयोगी रहता है। उपर्युक्त सभी प्रवृत्तियाँ तनाव उत्पन्न करने वाली हैं, इन प्रवृत्तियों से मुक्ति ही तनावमुक्ति है। पीला रंग पदम् लेश्या का रंग पीला है। पीला रंग उच्च बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। आभामण्डल में पीतवर्ण की प्रधानता हो, तो माना जा सकता है कि वह व्यक्ति अल्प कषाय वाला, प्रशान्त - चित्त व तनावमुक्त और आत्मसंयम करनेवाला है। व्यक्ति को लाल रंग का ध्यान करते-करते पीले वर्ण पर आना होगा और पीले रंग का ध्यान करते-करते श्वेत रंग तक का सफर तय करना होगा। पीला रंग शांत चित्त के लिए है और जब चित्त शांत होगा, तो पूर्णतः शांति के लिए पीले रंग को हल्का करते हुए श्वेत रंग के ध्यान की अवस्था में पहुँच 629 630 प्रेक्षा ध्यान : लेश्या ध्यान, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 45 लेश्या और मनोविज्ञान, मुमुक्षु शांता जैन, पृ. 202 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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