Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 316
________________ 314 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति अध्याय-7 उपसंहार आज विश्व की जो प्रमुख समस्याएं मानवं-समाज के सामने उपस्थित हैं, उनमें सबसे प्रमुख समस्या मानव-मन के तनावग्रस्त होने की है। आज विश्व के न केवल अभावग्रस्त देश तनावग्रस्त हैं, अपितु वे देश, जो विकसित कहे जाते हैं और जिनके पास सुख-सुविधा के विपुल साधन हैं, वे भी तनावग्रस्त हैं। इस प्रकार, आज सम्पूर्ण मानव-समाज तनावों से ग्रस्त है। जैन-चिन्तकों का कहना है कि जब तक मानव-मन में इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, तृष्णा और अन्य व्यक्तियों एवं वस्तुओं से अपेक्षाएँ बनी हुई हैं, जब तक वह आत्म-संतुष्ट नहीं है, तब तक उसका तनावग्रस्त होना स्वाभाविक ही है। भारतीय-चिन्तन में इसी तनावग्रस्तता को दुःख कहा गया है। कहा भी गया है .धन बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। कोहु न सुखी संसार में, सारो जग देख्यो छान ।। बौद्धदर्शन में जिस दुःख आर्य-सत्य की कल्पना है, वह भी वस्तुतः भौतिक या शारीरिक-दुःख नहीं, अपितु तृष्णाजन्य दुःख है, यह तृष्णाजन्य दुःख मानव-समाज में सर्वत्र व्याप्त है और यही तनाव है। तृष्णा के सम्बन्ध में कहा गया हैतृष्णा न जीर्णाः वयमेव जीर्णाः। भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता।। अर्थात् -"तृष्णा कभी वृद्ध नहीं होती है, वह तो सदैव नवयौवना ही बनी रहती है, वस्तुतः, आयु ही क्षीण हो जाती है। भोगों को भोगने पर भी भोगाकांक्षा संतुष्ट नहीं होती है, आयु ही भोग ली जाती है। यह तृष्णा ही तनावों का मूल कारण है और जब तक यह बनी रहती है, मानव तनावग्रस्त रहता है। मानव-समाज में अन्य सभी विकृतियाँ तृष्णा या तनाव के कारण ही उत्पन्न होती हैं, अतः आज वैश्विक-समस्याओं में तनाव ही प्रमुख समस्या है और इस तनाव के कारण ही जीवन दुःखमय है। मानवीय-चेतना में वासना और विवेक का संघर्ष चलता हैं, जिसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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