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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
पारस्परिक - विश्वास एवं परोपकार की वृत्ति से, न कि संहारक अस्त्रों से दूसरों को भयभीत करके ।
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इस प्रकार, जैनदर्शन में जहाँ एक ओर तनावों के कारणों का प्रस्तुतिकरण एवं उनकी समीक्षा की गई है, वहीं दूसरी ओर, उसने तनावमुक्त होने के सूत्र भी प्रस्तुत किए हैं। इस प्रकार, जैन-धर्मदर्शन तनावों के सम्यक् प्रबंधन की बात करते हुए व्यक्ति के सामने तनावमुक्त होने का आदर्श भी प्रस्तुत करता है। वह एक ओर तनावों के कारणों को बताता है, तो दूसरी ओर, तनावों के निराकरण के सूत्र भी प्रदान करता है, इसलिए प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में हमने एक ओर तनावों के स्वरूप को समझाया है, तो साथ ही उसके कारणों का विश्लेषण भी किया है और अंत में यह बताने का प्रयास किया है कि तनावों के कारणों को समाप्त करके ही तनाव को समाप्त किया जा सकता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति अर्थात् तनावमुक्ति के लिए हमने प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ को छह अध्यायों में विभक्त कर जैन- दृष्टिकोण से तनाव - प्रबंधन का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
शोध-प्रबंध के प्रथम अध्याय में वर्तमान वैश्विक समस्याओं में एक प्रमुख समस्या 'तनाव' के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। तनाव मानव समाज की समस्या होने के कारण ही विश्व की एक मुख्य समस्या बन गई है। वर्तमान युग को वैज्ञानिक -युग कहा जाता है, क्योंकि विज्ञानं ने व्यक्ति की इन समस्याओं का समाधान करने के हेतु एवं उसे अपने दुःखों से मुक्ति देने के लिए सुख-सुविधा के सारे साधन प्रदान किए हैं। इतना ही नहीं, मानव समाज को भयमुक्त करने के लिए सुरक्षा के साधन भी उपलब्ध कराए हैं, फिर भी आज व्यक्ति न तो संतुष्ट है और न भय - मुक्त और इन कारणों से उसके जीवन में सुख एवं शांति भी नहीं है। चेतना के स्तर पर मन में आनंद एवं प्रसन्नता भी नहीं है। सुख-सुविधा के इतने सारे साधनों के होते हुए भी वह न तो संतुष्ट है और न ही सुरक्षा के सारे साधन होते हुए भी वह भयमुक्त है। असंतुष्ट और भयग्रस्त होने के कारण वह तनावमुक्त भी नहीं है।
वर्तमान में विश्व को एक ही नहीं, अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और उन समस्याओं के समाधान के प्रयास में भी नई-नई समस्याओं का जन्म हो रहा है, जो मनुष्य के आत्म-संतोष और आत्मशान्ति को छीनकर उसे तनावग्रस्त ही बना रही है। शोध-प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में हमने इस पर विस्तार से चर्चा की है।
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