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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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को जानकर उनके प्रति श्रद्धा करना 'दर्शन' है। 506 उपर्युक्त बोध होने पर ही व्यक्ति इच्छा, आकांक्षा आदि तनाव के कारणों को समझेगा, तत्पश्चात् आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होगा और फिर एक दिन स्वयं को तनावमुक्त पाएगा। सम्यकदर्शन से तनावमुक्ति -
सम्यकदर्शन का मूल अर्थ है -यथार्थ दृष्टिकोण, जो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है।57 वीतरागता की अवस्था ही मोक्ष की अवस्था है और मोक्ष की अवस्था ही तनावमुक्ति की अवस्था है। जो व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है, वह तनावग्रस्त है और तनावग्रस्त व्यक्ति का दृष्टिकोण भी तनावपूर्ण ही होगा, अर्थात् उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो सकता है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार तथा साधना सम्यक नहीं हो सकती, क्योंकि गलत दृष्टिकोण जीवन के व्यवहार और ज्ञान को सम्यक नहीं बना सकता है और जहां व्यवहार और ज्ञान-दोनों ही सम्यक नहीं है, वहाँ तनावपूर्ण स्थिति बन जाती है। मिथ्या दृष्टि से व्यक्ति की आत्मा में राग-द्वेष की उपस्थिति होती है, अतः व्यक्ति को तनावमुक्त होने के लिए सर्वप्रथम अपने दृष्टिकोण को सम्यक् बनाना होगा। "पर' को 'पर' और 'स्व' को 'स्व' मानना होगा और 'पर' के प्रति ममत्व को समाप्त करना होगा। वस्तुतः जो व्यक्ति सम्यक दृष्टिकोण से युक्त होता है वही तनावमुक्ति की अवस्था को या 'मोक्ष की अवस्था को पा सकता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति 'स्व' और 'पर' का. भेद जानता है और 'पर' पर ममत्व का आरोपण नहीं करता है। जो अयथार्थता को समझता है, जानता है और उसके कारणों को तथा उससे होने वाले परिणामों को जानता है, वही तनाव से मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। अयथार्थता को अयथार्थ जानने वाला साधक यथार्थता को न जानते हुए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है। वह व्यक्ति कभी भी असत्य का निराकरण कर सत्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा, जो मिथ्यादृष्टि है। डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक 'जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा है- “साधक के दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए दृष्टि का राग-द्वेष से पूर्ण विमुक्त होना आवश्यक नहीं है; मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता को और उसके
506 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-5, पृ. 2425 . 507 जैन.बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 49
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