Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 290
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति #569 द्वेष का कारण है। 567 जिस प्रकार दृष्टि के राग में आतुर पतंगा मृत्यु पाता है, उसी प्रकार रूप में अत्यंत आसक्त होकर जीव अकाल में ही मृत्यु पाते हैं।568 रूप की आशा के वश पड़ा हुआ अज्ञानी जीव त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, परिताप (दुःख) उत्पन्न करता है तथा पीड़ित करता है। 69 रूप में मूर्च्छित जीव उन पदार्थों के उत्पादन, रक्षण एवं व्यय में और वियोग की चिन्ता में लगा रहता है। उसे सुख कहाँ है? वह संभोगकाल में भी अतृप्त रहता है।” रूप में आसक्त मनुष्य को थोड़ा भी सुख नहीं होता, जिस वस्तु की प्राप्ति में उसने दुःख उठाया, उसके उपयोग के समय भी वह दुःख पाता है। 71 570 288 श्रोत्रेन्द्रिय शब्द को ग्रहण करने वाली और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का ग्राह्य विषय है। प्रिय शब्द राग का और अप्रिय शब्द द्वेष का कारण है। 72 जिस प्रकार राग में गृद्ध मृग मारा जाता है, उसी प्रकार शब्दों के विषय में मूर्च्छित जीव अकाल में ही नष्ट हो जाता है। 73 मनोज्ञ शब्द की लोलुपता के वशवर्ती भारी कर्मी जीव अज्ञानी होकर त्रस और स्थावर जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है, उन्हें परिताप उत्पन्न करता है और पीड़ा देता है। 574 शब्द में मूर्च्छित जीव मनोहर शब्द वाले पदार्थों की प्राप्ति, रक्षण एवं वियोग की चिंता में लगा रहता है। वह संभोगकाल के समय में भी अतृप्त ही रहता है, फिर उसे सुख कहाँ है? तृष्णा के वश में पड़ा हुआ वह जीव चोरी करता है तथा झूठ और कपट की वृद्धि करता हुआ अतृप्त ही रहता है और दुःख से नहीं छूट पाता । 75 इसी प्रकार, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के संदर्भ में भी समझना चाहिए। इन इन्द्रियों के वशीभूत होकर व्यक्ति की चिंता, दुःख, परिताप देना, चोरी, झूठ, कपट आदि वृत्तियाँ तनाव उत्पन्न करती हैं, या यह कहें कि ये सब तनाव के ही हेतु हैं । 567 वही - 32/23 568 वही - 32/24 569 वही - 32 / 27 570 उत्तराध्ययनसूत्र 571 वही - 32/32 572 वही 32/36 573 574 575 - उत्तराध्ययनसूत्र वही - 32/40 वही - 32/40 Jain Education International 32/28 32/37 ر For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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