Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 283
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 281 उपयोगिता है, साथ ही, अनेकांतवाद यह भी मानता है कि वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म-युगल एक साथ पाए जाते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि व्यक्ति में तनावग्रस्त होने और तनावमुक्त होने की सम्भावनाएँ हैं, अतः तनावप्रबन्धन की दृष्टि से जैनदर्शन का मानना है कि व्यक्ति को तनावग्रस्त होने की अपेक्षा तनावमुक्ति की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं सत्' कहकर वस्तु के अनेकान्तिक स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।560 एक वस्तु उत्पन्न होती है, वही नष्ट भी होती है और वही ध्रौव्य भी होती है। वस्तु की पर्याय बदलती है, पर द्रव्य वही होता है, उदाहरणार्थ - सोने की अंगूठी को गलाकर उसकी चूड़ी बनाई जा सकती है, उसका आकार बदला जा सकता है, पर सोने के परमाणु तो वही होते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि हमें वस्तुतत्त्व को या सत्ता के प्रत्येक पक्ष को, अर्थात् उसकी अनेकान्तिकता या अनन्तधर्मात्मकता को स्वीकार करना होगा । . प्रत्येक व्यक्ति, समाज, देश तथा विश्व में शांति स्थापित करने में अनेकान्त शांतिदूत के समान है। हमें तनावमुक्ति के लिए अनेकान्त के महत्त्व को समझना होगा कि यह किस प्रकार हर क्षेत्र में विवादों के मध्य एक समन्वय स्थापित करता है। अनेकान्तवाद और तनावमुक्ति - शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति सामंजस्य को अपने जीवन में उतारे, जीवन के विविध आयामों में समायोजन स्थापित करे। विविध पक्षों में सम्यक् समायोजन ही अनेकांतवाद है और यही तनावप्रबंधन की प्रक्रिया भी है। अनेकांत एक समग्र एवं समायोजन- पूर्ण जीवनदृष्टि है। इस अनेकांत-दृष्टि का उपयोग अति प्राचीनकाल से होता आ रहा है। जैन-साहित्य में आचारांग अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। इसमें कहा गया है- "जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा तो आसवा 567, अर्थात् जो आस्रव (बंधन) के कारण हैं, वे ही निर्जरा (मुक्ति) के कारण भी बन सकते हैं और जो निर्जरा (मुक्ति) के कारण हैं, वे ही आस्रव (बंधन) के कारण भी बन सकते हैं। महावीर का कथन उसी अनेकान्त-दृष्टि का परिचायक है। तनाव-प्रबन्धन की दृष्टि 560 तत्त्वार्थसूत्र - 5/29, उमास्वाति 561 देखें: आचारांग । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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