Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 229
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 227 कामनाओं-रूपी बाह्य-शत्रुओं को जीतने के कारण तनाव समाप्त हो जाते हैं। इनके समाप्त होते ही शांति की तरंग उठती है, जो आत्मा को तनावमुक्त अवस्था में ले जाती है, अर्थात् स्वभावदशा में लाती है, तब व्यक्ति को सुख-दुःख में किसी प्रकार का आत्मभान नहीं रहता है। वस्तुतः, पूर्णतः तनावमुक्ति के लिए सुख और दुःख दोनों से ऊपर उठकर आत्मशान्ति को प्राप्त करना आवश्यक है। ध्यान और योगसाधना से तनावमुक्ति - - जैनधर्म में मुक्ति का एक साधन ध्यान और योग-साधना है। जैन-परम्परा में ध्यान-पद्धति प्राचीनकाल से ही प्रचलित है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जितने भी जैन-आगम हैं, उन सभी में ध्यान के स्वरूप का विवेचन मिलता है। दूसरे, खुदाई के दौरान जैनतीर्थंकरों की जो प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं, वे सभी ध्यानमुद्रा में ही प्राप्त होती हैं।427 ऋषिभाषित में तो स्पष्ट रूप से कहा गया है- शरीर में जो स्थान मस्तिष्क का है, साधना में वही स्थान ध्यान का है। 428 उत्तराध्ययनसूत्र में श्रमण-जीवन की दिनचर्या का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि प्रत्येक श्रमण-साधक को दिन और रात्रि के दूसरे प्रहर में नियमित रूप से ध्यान करना चाहिए।429 ध्यान को मोक्ष-प्राप्ति अर्थात् समग्र दुःखों से मुक्ति का साधन माना गया है। जब ध्यान समस्त दुःखों से मुक्ति दिला सकता है, तो वह व्यक्ति के तनावमुक्त जीवन जीने का साधन क्यों नहीं हो सकता है? किन्तु यहाँ यह जानना आवश्यक है कि तनावमुक्त होने के साधनभूत ध्यान का आलम्बन क्या होगा? क्योंकि ध्यान के आलम्बन तो अनेक हैं, किन्तु उनमें से कई साधन तनावग्रस्त करने वाले या तनावजन्य स्थिति को और अधिक बढ़ाने वाले होते हैं। ध्यान-साधना की पद्धतियों को जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ध्यान-साधना का व्यक्ति के जीवन में क्या महत्त्व है और उसे ध्यान क्यों करना चाहिए ? एक शब्द में उत्तर दें, तो तनावमुक्ति या दुःखमुक्ति के लिए व्यक्ति को ध्यान करना चाहिए। व्यक्ति का मन स्वभावतः चंचल माना गया है और मन की यह चंचलता या विकल्पात्मकता ही व्यक्ति को तनावग्रस्त कर देती है। उत्तराध्ययनसूत्र में मन को दुष्ट अश्व की संज्ञा दी गई है, जो कुमार्ग में 427 428 Mohanjodaro and Indus civilization, John Marshall, Vol. I, Page-52 इसिभासियाई - 11/14 - उत्तराध्ययनसूत्र -26/18 . 429 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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