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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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अनुकूल अनुभव होने पर, उसका वियोग न हो जाए- इसकी चिन्ता में तनावग्रस्त बन रहा है। इसी प्रकार, अनुकूल के संयोग को चिरकाल तक बनाए रखने की अभिलाषा के कारण उसका चित्त विचलित या तनावग्रस्त रहता है। प्रिय वस्तु के वियोग की सम्भावना का मात्र चिंतन करने से ही उसके मन में विक्षोभ उत्पन्न हो जाता है। यह विक्षोभ तनाव का ही एक लक्षण है। इस प्रकार इष्ट वियोग की चिन्ता एवं इष्ट संयोग की चाह - दोनों ही आर्तध्यान या तनाव को ही जन्म देती हैं।
____ आर्त्तध्यान का चौथा रूप निदान-चिन्तन है। “पाँचों इन्द्रियों से सम्बन्धित कामभोगों की इच्छा करना, भोगेच्छा-चिन्तनरूप आर्त्तध्यान . है। 446 इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त और जीवन में निरन्तर बनी रहती हैं। उन्हें पूरा करने की चिंता में पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है, फिर भी इच्छाएँ समाप्त नहीं होती हैं। ये इच्छाएँ या आकांक्षाएँ ही व्यक्ति के मन में एक द्वन्द्व उत्पन्न करती हैं। व्यक्ति दिन-रात इच्छाओं के पीछे भागता रहता है और क्षणभर भी संतोष का अनुभव नहीं कर पाता है। भविष्य में इच्छाओं को पूर्ण करने की लालसा में व्यक्ति मन के माध्यम से प्रयासरत रहता है। इस हेतु अपनी क्षमता से अधिक कार्य करना भी तनाव उत्पन्न करता है, फिर चाहे वह कार्य शारीरिक हो या मानसिक।
- इस प्रकार, उपरोक्त चारों आर्तध्यान तनाव को उत्पन्न करते हैं। कभी व्यक्ति अनिष्ट के संयोग से दुःखी होता है, तो कभी इष्ट के वियोग की चिंता में तनावग्रस्त रहता है। एक ओर, रोगादि से प्राप्त वेदना को दूर करने की चिंता रहती है, तो दूसरी ओर, पाँचों इन्द्रियों की लालसा को पूर्ण करने की इच्छा रहती है, जो मस्तिष्क को अशांत बनाए रखती हैं। चिंता, दुःख, परेशानी, वेदना, अशान्तता ये तनाव के ही उपनाम हैं। आर्तध्यान वह ध्यान है, जिसमें आध्यात्मिक-शक्तियाँ क्षीण होती हैं और तनाव उत्पन्न करने वाली स्थितियों का विकास होता है। कहते हैं कि चित्त की एकाग्रता के लिए जितना ध्यान किया जाता है, वह सफल होता है और एक दिन मन अपनी चंचलता के स्वभाव को छोड़कर शांत या एकाग्रचित्त हो जाता है। इस प्रकार, आर्तध्यान जितना अधिक होगा तनाव भी उतना ही बढ़ता जाएगा। आर्तध्यान और तनाव का सह-सम्बन्ध बताते हुए यह भी कह सकते हैं कि जो लक्षण
446 (1) ध्यानशतक -
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