Book Title: Jain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Author(s): Trupti Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
2. मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान, 3. स्तेयानुबन्धी- रौद्रध्यान,
4. विषयसंरक्षणानुबन्धी- रौद्रध्यान ।
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हिंसानुबन्धी- रौद्रध्यान निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने वाली चित्त की एकाग्रता । 149 हिंसानुबन्धी- रौद्रध्यान में चित्त दूसरों को पीड़ित करने का, दुःख देने का, उनके ताड़न या मारने का ही चिंतन करता रहता है। जिस प्रकार अग्नि जलाती है, उसी प्रकार रौद्रध्यानी क्रोधरूपी अग्नि में जलता रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र में क्रोधादि कषाय को अग्नि की उपमा दी है। 1 ऐसे व्यक्ति के मन में - शांति नहीं रहती। अशांत व्यक्ति स्वयं भी अशांत रहता है, अर्थात् तनावयुक्त रहता है और दूसरों को भी तनावग्रस्त कर देता है। आचारांगसूत्र से इस बात की पुष्टि होती है। कहा गया है- आतुरा परितावेंति, अर्थात्, जो स्वयं आतुर होता है, वह दूसरों को भी परिताप देता है। 151 रौद्रध्यानी इतना क्रूर होता है कि क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खड़ी माँ, बहिन और बच्चे को भी मारने लग जाता है। 452 क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। 453
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मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान इस दूसरे रौद्रध्यान का सम्बन्ध माया से है। दूसरों को ठगना, झूठ बोलना, लोभवश झूठ बोलकर दूसरों के जीवन में अंधेरा कर देना अर्थात् उनके इच्छित विषयों को समाप्त कर देना मृषानुबन्धी- रौद्रध्यान है । इस स्थिति में व्यक्ति का मन सदैव दूसरों को ठगने का ही विचार करता रहता है, माया रचता रहता है और एक माया हजारों सत्य का नाश कर डालती है ।'
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स्तेयानुबन्धी- रौद्रध्यान - इस ध्यान में व्यक्ति तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने का चिन्तन करता रहता है। 455 अपहरण करने से अपहरणकर्त्ता भी तनावयुक्त रहता है और जिसका सामान चोरी हुआ है, वह भी चिंतित व अशांत रहता है।
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जैन साधना पद्धति में ध्यान, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 28
कसाया अग्गिणो वृत्ता
उत्तराध्ययनसूत्र - 23 /53
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आचारांगसूत्र - 1/1/6 वसुनन्दि श्रावकाचार - 66
भगवती आराधना - 1366 ( रोसेण रूद्दहिदओ, णारगसीलो रो होदि)
भगवती आराधना
1384 (सच्चाण सहसाण वि, माया एक्कानि णासेदि ।)
ध्यानशतक - 20
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