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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति .
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(1) साधारण अन्य समान चैतसिक - ये प्रत्येक चित्त में सदैव उपस्थित रहते हैं। ये सात हैं - 1. स्पर्श, 2.. वेदना, 3. संज्ञा, 4. चेतना, 5. एकाग्रता (आंशिक), 6 जीवितेन्द्रिय और 7. मनोविकार | (2) प्रकीर्ण अन्य समान चैतसिक - ये प्रत्येक चित्त में यथावसर उत्पन्न होते रहते हैं। ये छह हैं - 1. वितर्क, 2. विचार, 3. अधिमोज्ञ (आलम्बन में स्थिति), 4. वीर्य (साहस), 5. प्रीति (प्रसन्नता) और 6. छन्द (इच्छा )।
उपर्युक्त छह में से एकाग्रता को छोड़कर शेष सभी चित्त को विचलित करने वाले हेतु हैं। यहाँ एकाग्रता भी आंशिक ही होती है। (ब) अकुशल-चैतसिक -
ये चौदह हैं - 1. मोह, 2. निर्लज्जता, 3. अभीरूता (पाप करने में भय नहीं खाना) 4. चंचलता, 5. लोभ, 6. मिथ्यादृष्टि, 7. मान, 8. द्वेष, 9. ईर्ष्या, 10. मात्सर्य (कष्ट), 11. कौकृत्य (पश्चाताप या शोक), 12. स्त्यान (चित्त का तनाव) 13. मृध्द (चैतसिकों का तनाव) और 14. विचिकित्सा (संशयालुपन)। (स) कुशल-चैतसिक - :
ये पच्चीस हैं - 1. श्रृद्धा, 2. स्मृति (अप्रमत्तता), 3. पापकर्म के प्रति लज्जा, 4, पापकर्म के प्रति भय, 5. अलोभ (त्यागभाव), 6. अद्वेष (मैत्री), . 7. तत्र . मध्यस्थता (अनासक्ति, उपेक्षा या समभाव), 8. काय-प्रश्रब्धि (प्रसन्नता), 9. चित्त-प्रश्रब्धि, 10. काय-लघुता (अहंकार का अभाव), 11. चित्त-लघुता, 12. काय-विनम्रता, 13. चित्त-विनम्रता, 14. काय-सरलता, 15. चित्त-सरलता, 16. काय-कर्मण्यता, 17. चित्त-कर्मण्यता, . 18. काय-प्रागुण्य, 19. चित्त-प्रागुण्य, 20. सम्यक-वाणी, 21. सम्यक-कर्मण्यता, 22. सम्यक् जीविका, 23. करुणा, 24. मुदिता और 25. प्रज्ञा।
. बौद्ध-धर्मदर्शन में इन बावन चैतसिकों का जो उल्लेख मिलता है, वह यहाँ मुख्यतः अकुशल चैतसिक, कुशल-चैतसिक और अव्यक्त । चैतसिक- ऐसे तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। अकुशलचैतसिक चित्त की मलिन अवस्था है, अतः वह तनावयुक्त अवस्था है। व्यक्ति के कुशल चैतसिक मुख्यतः तनाव के हेतु न होकर तनावमुक्ति की प्रक्रिया के साधनरूप हैं। जहाँ तक अव्यक्त चैतसिकों का प्रश्न है,
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