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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
बनाए रखना कोप है।236 इस अवस्था में व्यक्ति मन ही मन तनावग्रस्त होता जाता है। 3. रोष – शीघ्र शांत नहीं होने वाला क्रोध रोष है।27 रोषं आने पर व्यक्ति लम्बे समय तक तनावग्रस्त रहता है, क्योंकि इस अवस्था में क्रोधाभिव्यक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। 4. दोष - स्वयं पर या दूसरे पर दोष थोपना । 38 कुछ व्यक्ति क्रोध अवस्था में अपना दोष दूसरे पर थोपकर उसे भी तनावग्रस्त कर देते हैं। 5. अक्षमा – दूसरों के अपराध को सहन न करना अक्षमा है।29 जैसे कोई धुले हुए कपड़ों पर पैर रखकर निकल जाए, तो तुरन्त उसे थप्पड़ या चाँटा मारने वाले कई अभिभावक होते हैं, जबकि यह बात प्रेम से भी समझाई जा सकती है। 6. संज्वलन - क्रोध से बार-बार आग-बबूला होना संज्वलन है। यहाँ संज्वलन का अर्थ संज्वलन-कषाय से भिन्न है। 7. कलह - क्रोध में अत्यधिक अनुचित शब्द या अनुचित भाषण करना कलह है। कलह से तनाव उत्पन्न होता है।। 8. चाण्डिक्य - क्रोध में उग्र रूप धारण करना, सिर पीटना, बाल नोंचना, आत्महत्या करना आदि क्रोध की परिस्थितियाँ चाण्डिक्य हैं। इस अवस्था में तनाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है। 9. मण्डन - दण्ड, शस्त्र आदि से युद्ध करना मंडन है। क्रोध में आकर व्यक्ति दूसरे के प्राणों का हनन करने में तनिक भी संकोच नहीं करता है। 10. विवाद – परस्पर विरुद्ध वचनों का प्रयोग करते हुए उत्तेजित हो जाना विवाद है।
उपर्यक्त सभी प्रकार क्रोध के रूप ही हैं, क्योंकि क्रोध आने पर व्यक्तियों की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ होती हैं।
236 भगवतीसूत्र, अभयदेवसूरिवृत्ति, श.12, उ.5. सू.2
वही, अभयदेवसूरिवृत्ति, श.12, उ.5, सू.2
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