Book Title: Jain Darshan ke Mul Siddhanta Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 15
________________ भगवान महावीर : जीवन और सिद्धान्त / १३ वे खरे उतरे। उनकी विदेह-साधना सिद्ध हो गई। उनकी अभय-साधना सिद्ध हो गई। उनकी समता की साधना सिद्ध हो गई। वे वीतराग की भूमिका में केवली हो गये। परोक्ष ज्ञान का लोहावरण टूट गया। उनकी चेतना अनावृत हो गई। उन्हें ज्ञान के माध्यमों की अपेक्षा नहीं रही। इन्द्रिय,मन और बुद्धि की उपयोगिता समाप्त हो गई। उनके लिए सब कुछ प्रत्यक्ष हो गया। साधनाकाल में भगवान प्राय: मौन, अकर्म और ध्यानस्थ रहे । साधना की सिद्धि होने पर उन्होंने सत्य की व्याख्या की। उन्होंने व्याख्या का माध्यम जन-भाषा को बनाया। उनके उपदेश आज भी उस समय की जनभाषा-प्राकृत में मिलते हैं। सत्य ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी सत्य की उपलब्धियों की शताब्दी है। उस शताब्दी में भारतीय क्षितिज पर महावीर और बुद्ध, चीनी क्षितिज पर लाओत्से और कन्फ्यूशियस, यूनानी क्षितिज पर पाइथेगोरस जैसे महान धर्मवेत्ता सत्य के रहस्यों का उद्घाटन कर रहे थे। वे भौगोलिक सीमा में विभक्त थे। उनका प्रतिपादन इस तथ्य की घोषणा है कि सत्य शाश्वत है। वह देश और काल से व्यवच्छिन्न नहीं है। ईस्वी पूर्व नवीं शताब्दी में जैन धर्म के महान तीर्थंकर भगवान पार्श्व हो चुके थे। उनका धर्मशासन सत्य का सापेक्ष उद्घोष कर रहा था। उस समय उपनिषद् लिखे जा रहे थे। औपनिषदिक ऋषि नेति-नेति के द्वारा सत्य की व्याख्या कर रहे थे। महावीर के समय तक उसकी पुनरावृत्ति हो रही थी। बुद्ध ने कहा- 'सत्य अव्याकृत है।' लाओत्से ने कहा'सत्य कहा नहीं जा सकता। महावीर ने कहा- 'सत्य नहीं कहा जा सकता, यह जितना वास्तविक है उतना ही वास्तविक यह है कि सत्य कहा जा सकता है। सत्य कहा जा सकता है-इसका स्वीकार यदि अवास्तविक है तो सत्य नहीं कहा जा सकता- इसका स्वीकार भी वास्तविक नहीं है। वास्तविकता इन दोनों के समन्वय से प्राप्त होती है। विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक साथ होना समन्वय है । वस्तु-जगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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