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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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सो मैं इस प्रकार जानता था कि उत्पन्न हुआ यह मुझे निष्कामता आदि वितर्क - यह न आत्म आबाधा, न पर आबाधा, न उभय Heart लिये है यह प्रज्ञावर्द्धक है, अविघात पक्षिक है और निर्वा urat जानेवाला है । रातको भी या दिनको भी यदि मैं ऐसा वितर्क करता, विचार करता तो मैं भय नहीं देखता। किंतु बहुत देर वितर्क व विचार करते मेरी काया क्लान्त (थकी) होजाती, कायाके क्लान्त होनेपर चित्त अपहृत ( शिथिल ) होजाता, चित्तके अपहृत होनेपर चित्त समाधिसे दूर हट जाता था । सो मैं अपने भीतर (अध्यात्ममें) ही चित्तको स्थापित करता था, बढ़ाता था, एकाग्र करता था । सो किस हेतु ? मेरा चित्त कहीं अपहृत न होजावे ।
भिक्षुओ । भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर निष्कामता वितर्क, अव्यापाद वितर्क या अविहिसा वितर्कका अधिकतर अनुवितर्क करता है तो वह कामादि वितर्कको छोड़ता है, निष्कामता आदि वितर्कको बढ़ाता है । उस बाधित निष्कामला अव्यापाद, अविहिंमा वितककी ओर झुकता है । जैसे भिक्षुओ । ग्रीषमके अतिम भागमे जब सभी फसल जमाकर गाममें चली जाती है ग्वाला गायोंको रखता है । वृक्षके नीचे या चौड़ेमें रहकर उन्हें केवल याद रखना होता है कि ये गायें हैं। ऐसे ही भिक्षुओ ! याद रखना मात्र होता था कि ये धर्म हैं । भिक्षुओं ! मैनें न दबनेवालों वीर्य (उद्योग) आरंभ कर रखा था, न भूलनेवाली स्मृति मेरे सन्मुख थी, शरीर मेरा अचचक, शान्त थीं, चित समाहित एकाग्र वास में भिक्षुओं ! प्रथम ध्यानको, द्वितीय ध्यानको, तृतीय ध्यानको, चतुर्थ
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