Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 271
________________ जैन बोद्ध तत्वज्ञान । [१४७ मुठ समाग्दु ग्वस्य देह एवात्मधोस्तत । त्यक्त्वना प्रविशेढ बहिाध्य पृतेन्द्रिय ॥ १५ ॥ भावार्थ सप्त रक दु खोंका मुल कारण यह शरीर है। इन लिये आत्मज्ञानीको उचित है कि इ247 मनस्व त्यागकर व इन्द्रिों मे उपयोगको हटाकर अपने भोर प्रवेश करके आत्माको ध्यावे । आत्मानुशासनमे कहा है:उपग्रीष्मकठोरधर्मकिरणम्फूजगभस्तित्रभ । सतप्त सकले न्द्रियाया हो सवृदतृष्णो जन ॥ अमापाभिमत विवेक विमुग्व पापप्रयासाकुळस्तोयोपान्तदुग्न्तकई ममतक्षणाक्षवत् क्लिश्यते ॥ १५ ॥ भावार्थ-भयानक गर्म ऋतुर्क सूर्यकी तप्तायमान किरणोंक समान इन्द्रियोंकी इच्छाओंमे माकुलित यह मानव होरहा है। इसकी तृष्णा दिनपर दिन बढ़ रही है। मो इच्छानुकूल पदार्थोको न पाकर विवेकरहित हो अनेक पापरकर उपायोंको कम्ता हुमा व्याकुक होरहा है व उसी तरह दुखी है जैमे जल के पासकी गहरी कोचडमें फसा हुआ दुर्बल बूढा बैल अष्ट भोगे । स्वयभूस्तोत्रमें कहा हैतृष्णार्चिष परिदहन्ति न शान्तिरामा मिष्टेन्द्रियार्यविभव परिवृद्धिोव । स्थित्यैव कायपरितापहर निमित्त मित्यात्मवान्विषयसौख्यपराड्मुखोऽभूत् ।।८२॥ भावार्थ-तृष्णाकी अग्नि जलती है । इष्ट इन्द्रियोंके भोगोंके द्वारा भी वह शान्त नहीं होती है, किन्तु बढती ही जाती है ।

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