Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 269
________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२४१ (३) वैय्याहत्य-रोगी, थके, वृद्ध, बाल, साधुओंकी मेवा करना (४) स्वाध्याय-ग्रोंको भावसहित मनन करना, (५) व्युत्समभीतरी व बाहरी सर्व तरफकी ममता छोड़ना, (६) ध्यान-चित्तको रोककर समाधि प्राप्त करना । इमक दो भेद है-सविकल्प धनध्यान, निर्विकल्प धर्मध्यान । ___ धर्मके तत्वोंका मनन करना सविकल्प है, थिर होना निर्विकल्स है। पहला दुसरेका साधन है। धर्मध्यानके चार मेद हैं (१) आज्ञा विचय-शास्त्राज्ञाके अनुसार तत्वोंका विचार करना। (२) अपायविचय-हमारे राग द्वेष मोह व दूसरोंके रागादि दोष कैसे मिटें ऐसा विचारना। (३) विपाकविचय-ससारमें अपना व दुसरोका दु ख मुख विचार कर उनको कर्मोंका विपाक या फल विचार कर समभाव स्वना । (४) सस्थानविचय- लोकका स्वरूप व शुद्धात्माका स्वरूप विचारना ध्यानका प्रयोजन स्वानुभव या सम्यक् समाधिको पाना है। यही मोक्षमार्ग है, निर्वाणका मार्ग है। आष्यागिक बौद्ध मार्गमें रत्नत्रय जैन मार्ग गर्मित है। (१) सम्यग्दर्शनमें सम्यग्दर्शन गर्भित है। (२) सम्यक सकल्पमें सम्यग्ज्ञान गर्भित है। (३) सम्यक् वचन, सम्यक कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक् समाधि, इन छहमें सम्यक चारित्र गर्भित है। वा स्नत्रयमें भष्टागिक मार्ग गर्भित है। परस्पर समान है। यदि निर्वा

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