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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
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वह चक्षुरू को देखकर प्रिय रू. में रग्युक्त नहीं होना अप्रिय रूप द्वे युक्त नहीं होता । विशल चित्तक साथ कायिक स्मृतिको कायम रखकर विरता है। व उम चित्तकी बिमुक्त और प्रज्ञानी विमुक्तिको ठीक से जानता है । जिससे उनके मारे अनुश धर्म निरुद्ध होजाते है । वह इस प्रकार अनुरोध विरोध रहिन हो, सुखमय, दुखमय न सुख न दुम्वमय --- - जिस किसो बेदनाको अनुभव करता है, उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, उसमें अवगाहन कर स्थित नहीं होता । उस प्रकार अभिनन्दन न करते, अभिवादन न करते अवगाहन न करते जो वेदना विषयक नन्दी ( तृष्णा ) है वह उसकी निरुद्ध ( नष्ट ) होजाती है। उस नन्दीक निरोधसे उपादान ( गगयुक्त प्रण ) का निरोध होता है । उपादानके निरोवसे भवका निशेष भवछे निर धमे जाति ( जन्म ) का निरोध, जातिके निरोधसे जग मरण, शोक, कान, दुख दौमनस्य है, हानि परेशानीका निरोध होता है । इस प्रकार इन केवल दुख का निरोध होता है। इसी तरह श्रोत्र से शब्द सुनकर, प्रणसे ग सूनकर जिह्वामे रसको खर, कायासे हद वस्तुको छूकर मनमे धर्मो को जानकर प्रिय रागयुक्त नहीं लेता, त्रिघमें द्वेषयुक्त नहीं होता। इ प्रकार इस दुख का निगेव होता है।
भिक्षुओ ! मेरे सक्षेसे कहे इम तृष्णा सराय विमुक्ति (तृष्णा के विनाश से होनेवाली मुक्ति) को धारण करो ।
नोट - इस सूत्र में ससारके नाशका और निर्वाणके मार्ग का