Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 258
________________ २३४] दमरा भाग। विहाना है। चित्तको आमासे शुद्ध करता है । (२) व्यापाद (दोह) दोको उदार व्यापाद रहित चितवाला हो, सारे प्राणि थों हिमानुपी दो विहता है। व्यापादक दोषसे नित्तको शुद्ध रता है, (२) रूयान गृद्धि (श सरिक, मानसिक मालत्य ) को छोड़ स्थान गृद्ध राहेत हो, आलो. इ.व ला (मेशन ख्याल) हो, (मृति और संप्रनय (होश)मे युक्त हो विदन्ता , (४) औदत्यकोकृत्य ( रखताने और हिचकिचाहट ) को छोड़ अनुदन भीतसे शात हो विहता है, (५) विचिकित्सा (सदेह ) को छोड़, विचिकित्सा हिल हो, नि सोच भन इयोमे लग्न हो विहरता है। हम तरह वह इन अभिध्या भादि पाव नीवरणो को हटा उगकशों चिच मलों को जान उनके टर्च करने के लिये काय विषयोंसे अलग हो बुइयोंसे मालग हो, विस उत्पन्न एवं वितर्क विचारयुक्त मीति सुखबाल प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विदाता है। और फिर पद वितर्क और विचारके शात होनेपर, भीतरकी प्रपन्ना चित्तकी एकाग्रताको प्राप्तकर वितर्क विचर रहित, समाधिसे उस प्रीति सुखाले द्वितीय ध्यान प्राप्त हो विहाता है और फिर प्रोत और विगसे उपेशागला हो, स्मृति और सप्रजन्य से युक्त हो, कायासे मुम्ब अनुभव करता विहरता है । जिसको कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिमन और सुग्वविद्यारी कहते हैं । ऐसे तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है और फिर वह सुख और दुःखके विनाशसे, सौमनस्य और दीर्मनस्यके पूर्व ही मस्त हो जाने से, दुःख सुख रहित और उपेक्षक हो, स्मृतिकी शुद्धतासे युक्त चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है।

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