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दूसरा भाग । ___ भावार्थ -इस सपारमें मोही पुरुष कीर्तिके लिये, कोई पररगनके लिये, कोई इन्द्रिय विषयके लिये, कोई जीवनकी रक्षाके लिये, कोई सतान, कोई परिग्रह प्राप्तिके किये, कोई भय मिटानेके लिये, कोई ज्ञानदर्शन बढ'नेके लिये, कोई राग मिटानेके लिये धर्मकर्म करते है, परन्तु जो बुद्धिमान है वे शुद्ध चिट्ठपकी प्राप्तिके लिये ही यत्न करते है।
समयसार कलशमें श्री अमृतचद्राचार्य कहते हैरागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्य स्वभावस्पृश पूर्वागामिममस्तकम विकला भिन्नास्तदात्योदयात् । दूरारूढचरित्रवैभवमलाञ्चञ्चच्चिदर्चिष्मयीं विन्दन्ति स्वरसाभषिक्तभुवना ज्ञानस्य सचेतना ॥ ३०-१०॥
भावार्थ-ज्ञानी जीव रागद्वेष विभावोंको छोडकर सदा अपने स्वभावको स्पर्श करते हुए, पूर्व व आगामी व वर्तमानके तीन काल सम्ब धी सर्व कर्मोमे अपनेको रहित जानते हुए स्वात्म रमणरूप चरित्रमें आरुढ होते हुए आत्मीक मानन्द रससे पूर्ण प्रकाशमयी ज्ञानकी चेतनाका स्वाद लेत है।
कृतकारितानुमनने 'स्त्रकालविषय मनोवचनकाय । परिहत्य कर्म सर्व पाम नै र्यमवलम्बे ॥ ३२-१० ॥
भावार्थ-भून भविष्य वर्तमान सम्बन्धी मन वचन काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदनासे नौ प्रकारके सर्व कर्मोको त्यागकर मैं परम निष्कर्म भावको धारण करता हू ।
ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पा । भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहा ॥