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जैन बौद्ध तत्वज्ञान।
२२३ प्राय प्रश्नसह प्रभु परमनाहारी परानिन्दया ब्रूगाधर्मकथा गणी गुगनिधि अस्पृष्टमिष्ट क्षर• ॥९॥
भावार्थ-जो बुद्धिमान् हो, सर्व शास्त्रोंका रहर जानता हो, प्रश्नों का उत्तर पहलेहीसे समझता हो, किसी प्रकारकी माशा तृष्णासे रहित हो, प्रभावशाली हो शात हो, लोकके व्यवहारको समझना हो, भनेक प्रश्नों को सुन सक्ता हो, महान हो, परके मनको हरनेवाळा हो, गुणों का सागर हो, साफ माफ मीठे अक्षरों का कहनेवाला हो ऐसा आचार्य सघनायक परकी निदा न करता हमा धर्ममा उपदेश करे।
सारसमुच्चयमें कहा हैसप्तारावासनित्ता शिम्सौख्यसमुत्सुका । सद्धिन्ते गदिता प्राज्ञा शेषा शास्त्रस्य वचका ॥२१२॥
भावार्थ-जो साधु समारके वाससे उदास है। तथा कल्याणभय मोक्षके सुखके लिये सदा उत्साही है वे ही बुद्धिवान् पडिन सावुओं के द्वारा कहे गए हैं। इनको छोड कर शेष सब अपने पुरु पार्थके ठगनेवाले हैं।
तत्वानुशासनमें कहा हैतत्रासन्नीभवेन्मुक्ति किंचितासाद्य कारण । विरक्त कामभोगे-पस्त्यासर्वपरिप्रद ॥ ४१ ॥ अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीना जनेश्वरीं त्रिः । तप सयमसम्पन्न प्रदरहिताशय ॥ ४२ ॥ सम्यग्निर्णीतजीवादिध्ये वस्तुव्यस्थिति । मात्तरोद्रपरित्यागालबचित्तप्रसत्तिक ॥ ४३ ॥