Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 224
________________ २०० ] दूसरा भाग । 1 कह कि ह पुरुष ! आपने सारको नहीं समझा । सारसे जो काम करना है वह इस शाखा पत्ते मे न हो । । ऐमे ही भिक्षुओ ! यह वह है जिस भिक्षुने ब्रह्मचर्य ( बाहरी शील ) के शाखा पत्तेको ग्रहण किया और उतनेही मे अपने कृयको समाप्त कर दिया । (२) कोई कुल पुत्र श्रद्धा से प्रवजित हो लाभ, सत्कार, लोकका भागी होता है। वह इससे सतुष्ट नहीं होता व उस लाभादिसे न घमण्ड करता है न दूसरोंश नीच देखता है, वह मतवाला व प्रमादी नहीं होता, प्रमाद रहित हो, शील ( सदाचार ) का आरा धन करता है, उसी से सन्तुष्ट हो, मानको पूर्ण सकल्प समझता है । वह उन शील सम्पदा से अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है । यह भी प्रमादी हो दु खिन होता है । जैसे भिक्षुओ। कोई सारका खोजी पुरुष छाल और पपड़ीको काटकर व उसे सार समझकर लेकर चला जावे, उसको आखवाला देखकर कहे कि आप सारको नहीं समझे । सारसे जो काम करना है। वह इस छाल और पपड़ी से न होगा । तब वह दुखित होता है। ऐसे ही यह शीक सपदाका अभिमनी भिक्षु दुखित होता है । क्योंकि इसमें यहीं अपने कृत्यकी समाप्ति करदी | 1 (३) कोई कुलपुत्र श्रद्धानसे प्रनजित हो लाभादिसे सन्तुष्ट न हो, शीक सम्पदा से मतवाला न हो समाधि सपदाको पाकर उससे सतुष्ट होता है, अपनेको परिपूर्ण सकल्प समझता है । वह उस समाधि सपदासे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है, वह इस तरह मतवाला होता है ।

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