Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 235
________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२११ मुक्तिरेकान्तिको तस्य चित्ते यस्पाचला धृते । ताल्य नैकाविसकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यवधा ते ॥ ७१ ॥ भावार्थ-निसाफे मनमें निष्कम्प अामाने थिरता है उसको अवश्य निर्माणका लाभ होता है, जिसके चित्तमें ऐसा निश्च र धैर्य नहीं है उसको निर्वाण प्राप्त नहीं होमकता है । ज्ञानार्णवमें कहा है - निःशेषक्लेशनिमुक्तममुर्त परमाक्षरम् । निष्प्रपच व्यतीनाक्ष पश्य त्व खत्मनि स्पिन ॥ २४ ॥ भावार्थ-हे मात्मन् ! तू अपने ही आत्मामें स्थित, सर्क केशोंसे रहित, अमूर्तीक, परम अविनाशी, निर्विकला और अतींद्रिक अपने ही स्वरूपका अनुभव कर । रागादिपट्टविश्लेषात्प्रसन्ने चित्तवारिणि । परिस्फुाति नि शेष मुनेवस्तुकर सकम् ॥ १७-२३ ॥ भावार्थ-रागादि कर्दमके अमावसे जब चित्तरूपी जल शुद्ध होजाता है तब मुनिके सर्व वस्तुओंका स्वरूप स्पष्ट मासता है। तत्वज्ञान तरगिणीमें कहा हैव्रतानि शास्त्राणि तपासि निर्जने निवासमत हि सगमोचन । मौन क्षमातापनयोगधारण चिच्चितयामा कलयन् शिव श्रयेत् ॥११-१४॥ भावार्थ-जो कोई शुद्ध चैतन्य स्वरूपके मननके साथ साथ व्रतोंको पालता है, शास्त्रोंको पढ़ता है। तप करता है, निर्जनस्थानमें रहता है, बाहरी भीतरी परिग्रहका त्याग करता है, मौन धारता है, क्षमा पालता है व आतापन योग धारता है वही मोक्षको पाता है। -

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