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दूसरा भाग। घ्यावृत्त्येन्द्रिग्गोचरोरुगहने लोल चरिष्णु चिर। दुर दयोदरे स्थिरतर कृत्वा मनोम टम् ॥ ध्यान ध्यायति मुक्तये भवततेर्निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कुता हि विषय सिद्धि लभन्ते ध्रुवम् ॥१४॥
भावार्थ-जो कोई कठिनतासे वश करनेयोग्य इस मनरूपी अदरको, जो इन्द्रियोके भयानक वनमें लोभी होकर चिरकालसे घर रहा था, हृदयमें स्थिर करके बाघ देते हैं और भोगोंकी वाला छोड़कर परिश्रमके साथ निर्वाणके लिये ध्यान करते हैं, वे ही निवा को पासक्ते है । विना उपायके निश्चयसे सिद्धि नहीं होती।
श्री शुभचंद्र ज्ञानार्णवमे कहते हैअपि सल्पिता कामा सभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणा तृष्णा विश्व विसर्पति ॥३०-२०॥
भावार्थ-मानवोंको असे जैसे इच्छानुसार भोगों की प्राप्ति होती जाती है वैसे २ उनकी तृष्णा बढ़ती हुई सर्व लोक पर्यंत फैल जाती है।
यथा यथा हृषीकाणि खवश यान्ति देहिनाम् । तथा तथा स्फुरत्युच्चहदि विज्ञानभास्कर ॥ ११-२० ॥
भावार्थ-जैसे जैसे प्राणियोंके वशमें इन्द्रिया माती जाती हैं वैसे वैसे आत्मज्ञानरूपी सूर्य हृदयमें ऊँचा ऊँचा प्रकाश करता जाता है।
श्री ज्ञानभूषणनी तत्वज्ञानतरगिणीमे कहते हैंखसुख न सुख नगा वित्वभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकार । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्याद्विशुद्धपरिणामात् ॥४-१७॥
महून वारान् मया भुक्त सविकल्प सुखं तत । । तन्नापूर्व निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ १०-१७॥