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शत्रु है प्रज्ञाके प्रयोगके बलसे अपने वश कर लेता है वही वीर है व वही पडित है।
नत्वानुशासनमे कहा हैदिधासु स्व पर ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थिति । विहायान्यदत्विात् स्वमेवातु पश्यतु ॥ १४३ ॥ नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नान्यस्याह न मे पर । अन्यस्त्वन्योऽइमेवाहमन्योन्यस्याहमेष मे ॥ १४८ ॥
भावार्थ- यानकी इच्छा करनवाला आपको आप परको पर ठीक ठीक श्रद्धान करके अन्यको अकार्यकारी जानकर छोड़दे, केवल भपनेको ही जाने व देखे । मै अन्य नहीं हू न अन्य मुझ रूप है, न भन्यका मै इ, न अन्य मेरा है। अन्य अन्य है, मैं मैं ह, अन्यका अन्य है, मै मेरा ही हु, यही प्रज्ञा या भदविज्ञान है।
(१९) मज्झिमनिकाय रथविनीत सूत्र ।
एक दफे गौतम बुद्ध राजगृहमे थे । तब बहुनसे भिक्षु जातिभूमिक (कपिल वस्तुके निवासी ) गौतम बुद्ध के पास गए । तब बुद्धने पूछा-भिक्षुओ ! जातिभूमिक भिक्षुओंमे कौन ऐसा मभावित (प्रतिष्ठित) भिक्षु है, जो स्वय अल्पेच्छ (निर्लोभ) हो और अपे च्छकी कथा कहनेवाला हो, स्वय सतुष्ट हो और सतोषकी कथा कहनेवाला हो, स्वय प्रविविक्त (एकान्त चिन्तनशील) हो और अवि वेककी कथा कहनेवाला हो। स्वय असतुष्ट (अनासक्त) हो व अस सर्ग कथा कहनेवाला हो, स्वयं प्रारब्ब वीर्य ( उद्योगी) हो, और