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जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
[ १३७ मार्ग है। इससे बचने के लिये श्रीगुरुने दयालु होकर उपदेश दिया कि विषयराग छोड़ो, निर्वाणके प्रेमी बनो और अष्टांग मार्ग या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रय मार्गको पालो, सच्चा निर्वाणका श्रद्धान व ज्ञान रक्खो, हितकारी ससारनाशक वचन बोलो, ऐसी ही क्रिया करो, शुद्ध निर्दोष भोजन करो, शुद्ध भावके लिये उद्योग या व्यायाम करो, निर्वाणतत्वका स्मरण करो व निर्वा
भाव में या अध्यात्म में एकाग्र होकर सम्यक्समाधि भजो । यही अवि द्या नाशक व विद्या के प्रकाशका मार्ग है, यही निर्वाणका उपाय है । आत्मध्यानके लिये प्रमाद रहित होकर एकात सेवनका उपदेश दिया गया है ।
जैन सिद्धात में इस कथन सबन्धी नीचे लिखे वाक्य उपयोगी हैसमयसारजीमें श्री कुदकुदाचार्य कहते हैं -
जादू मामवाण असुचित्त च विवरीयभाव च । दुक्खस्स कारण ति य तदो नियति कुणदि जीवो ॥७७॥ भावार्थ-ये रागद्वेषादि आसव भाव अपवित्र है, निर्वाण से विपरीत है व ससार- दुखोंके कारण हैं ऐसा जानकर ज्ञानी जीव इनसे अपनेको अलग करता है। जब भीतर क्रोध, मान, माया लोभ या रागद्वेष उठ खड़े होते है अध्यात्मीक पवित्रता बिगड़ जाती है, गन्दापना या अशुचिवना होजाता है । अपना स्वभाव तो शाव है, इन रागद्वेषका स्वभाव अशात है, इससे वे विपरीत हैं | अपना स्वभाव सुखमईं है, रागद्वेष वर्तमान में भी दुख देते हैं, वे भविष्य में अशुभ कर्मबंधका दुखदाईं फळ प्रगट करते हैं। ज्ञानीको ऐसा विचारना चाहिये ।