________________
१६८ ]
दूसरा भाग ।
सभी औपपातिक (देव) हो । वहा जो परिनिर्वाणको प्राप्त होनेवाले है, उस लोकसे लौटकर नहीं आनेवाले (अनावृत्तिधर्मा, अनागामी) है । ( ३ ) ऐस स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंके राग द्वेष मोह तोन सयोजन नष्ट होगए है, निर्बल होगए है वे सारे सकृदागामी (सकदएकवार ही इस लोक्मे आकर दुस्खका अन करेंगे) होंगे । ( ४ ) ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंक तीन सयोजन ( राग द्वेष मोह) नष्ट होगए वे सारे नर्तित होनेवाले सबोधि बुद्धके ज्ञान ) परायण स्रोतापन्न निर्वाणकी ओर लजानवाले प्रवाह में स्थिर रीतिमे आरूढ़ ) है ।
1
(
भिक्षुओ ! ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जो भिक्षु श्रद्धानुसारी हैं, धर्मानुसारी है वे सभी सबोधि परायण हैं। इसप्रकार मैने धर्मका अच्छी तरह व्याख्यान किया है । ऐसे स्व ख्यात धर्ममें जिनकी मेरे विषय में श्रद्धा मात्र, प्रेम मात्र भो है वे सभी स्वर्गपरायण ( स्वर्गगामी ) है ।
नोट- उस सूत्र में स्वानुभवगम्य निर्वाणका या शुद्धा माका बहुत ही बढ़िया उपदेश दिया है जो परम कल्याणकारी है । इमको बारबार मनन कर समझना चाहिये । इसका भावार्थ यह है
(१) पहले यह बताया है कि शास्त्रको या उपदेशको ठीक ठीक समझकर केवल धर्म लाभके लिये पालना चाहिये, किसी लाभ व सत्कार के लिये नहीं । इस पर दृष्टात सर्पका दिया है । जो सर्पको ठीक नहीं पकड़ेगा उसे सर्प काट खाएगा, वह मर जायगा । परन्तु जो सर्पको ठीक२ पकडेगा वह सर्पको वश कर लेगा । इसी तरह