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दूसरा भाग। है उसके सिवाय सर्व विचाररूप ज्ञान पराधीन व त्यागनेयोग्य है, स्वानुभवमें कार्यकारी नहीं है । फिर सूत्रमे यह जताया है कि छ दृष्टियोंका समुदायरूप जो लोक है वही भात्मा है, मै मरकर निय, भपरिणामी ऐसा आत्मा होजाऊगा। इसका भाव यही समझमें माना है कि जो कोई वादी मात्माको व जगतको सबको एक ब्रह्मरूप मानते हैं व यह व्यक्ति ब्रह्मरूप नित्य होजायगा इस सिद्धातका निषेध किया है । इस कथनसे मजात, अमृत, शाश्वत, शात, पडिल वेढ नीय, तर्क अगोचर निर्वाण स्वरूप शुद्धात्माक, निषेध नहीं किया है । उस स्वरूप मै हू ऐसा अनुभव करना योग्य है । उस सिवाय मैं कोई और नहीं है न कुछ मेरा है, ऐसा यहा भाव है ।
(४) फिर यह बताया है कि जो इस ऊपर लिखित मिथ्या दृष्टिको रखता है उमे ही भय होता है । मोही व अज्ञानीको अपने नाशका भय होता है। निर्वाणका उपदेश सुनकर भी वह नहीं समझता है । रागद्वेष मोहके नाशको निर्वाण कहते हैं । इममे वह अपना नाश समझ लेता है। जो निर्वाणके यथार्थ स्वभाव पर दृष्टि रखता है, जिसे कोई भय नहीं रहता है, वह मसारके नाशको हितकारी जानता है।
(५) फिर यह बताया है कि निर्वाणके सिवाय सर्व परिग्रह नाशक्त हैं। उसको जो अपनाता है वह दु खिन होता है। जो नहीं अपनाता है वह सुखी होता है । ज्ञानी भीतर बाहर, स्थूल सूक्ष्म, दूर या निकट, भूत, भविष्य, वर्तमानके सर्व रूपोंको, परमाणु या स्कोंको अपना नहीं मानता है। इसी तरह उनके निमित्तसे