________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१५७ इस सूत्रमें बहुत ही बढ़िया उत्तम मा व महिंसा धर्मका उपदेश है । जैन सिद्धातमें भी ऐसा ही कथन है।
कुछ उपयोगी वाक्य नीचे दिये जाते हैश्री बट्टकेसस्वामी मूलाचार अनगारभावनामें कहते हैमक्खोमक्खणमेत्त भुनति मुणी पाणधाग्णणिमित्त । पाण धम्मणि मेत्त धम्म पि चरति मोक्खट्ठ ॥ ४९ ॥
भावार्थ-जैसे गाड़ोके पहियेमें तैल देकर रक्षा की जाती है वैस मुनिराज प्राणोंकी रक्षानिमित्त भोजन करते है । प्राणोंको धर्मके निमित्त रखते हैं। धर्मको मोक्षके लिये भाचरण करते हैं।
श्री कुदकंदखामी प्रवचनसारमें कहते है-- समसत्तु वधु वग्गो समसुदुक्खो पससणिंदसमो। समलोट्टुकचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ ६२-३॥
भावार्थ-जो शत्रु व मित्र वर्गपर समभाव रखता है सुख व दु ग्व पड़ने पर समभावी रहता है, प्रशसा व निन्दा होनेपर निर्वि कारी रहता है, ककड व सुवर्णको समान देखता है, जीने या मरने में हर्ष विषाद नहीं करता है वही श्रमण या साधु है।
श्री वट्टकेरस्वामी मूलाचार अनगार भावनामें कहते हैवसुधम्मि वि विहरता पीड ण करेंति कस्सइ कयाइ। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभडेसु ॥ ३२ ॥
भावार्थ-साधुजन पृथ्वीमे विहार करते हुए किसीको भी कभी पीड़ा नहीं देते है। वे सर्व जीवोंपर ऐसी दया रखते हैं जैसे माताका प्रेम पुत्र पुत्री भादि पर होता है।