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भाव रखना चाहिये। उसे मैत्रीभाव मनुकम्मा भाव ही रखना चाहिये। उसकी अज्ञान दशापर दयाभाव लाकर क्रोध नहीं करना चाहिये । क्षमा या मैत्रीभाव रखने के लिय साधुको नीचे लिखे दृष्टात दिये है
(१) साधुको पृथ्वीके समान क्षमाशील होना चाहिये । कोई पृश्वीका सर्वथा नाश करना चाहे तौभी वह नहीं कर सक्ता, पृथ्वाका भभाव नहीं किया जासक्ता। वह पाम गंभीर है, सहनशील है। वह सदा बनी रहती है। इसी तरह भले ही कोई शरीरको नाश कर, साधको भीतरसे क्षमावान व गभीर रहना चाहिये तब उसका नाश नहीं होगा, वह निर्वाणमार्गी बना रहेगा, (२) साधुको भाकाशके समान निलेप निर्मळ व निर्विकार रहना चाहिये । जैसे माकाशमें चित्र नहीं लिखे जासकते वैसे ही निर्मल चित्तको विकारी व क्रोध युक्त नहीं बनाया जासक्ता।
(३) साधुको गगा नदीके ममान शात, गभीर न निर्मक रहना चाहिये । कोई गगाको मसालमे जलाना चाहे तो असमव है, मसाल स्वय बुझ जायगी। इसीतरह साधुको कोई कितना भी कष्ट देकर क्रोधी या विकारी बनाना चाहे परन्तु साधुको गगाजलके समान शात व पवित्र रहना चाहिये ।
(४) साधुको विल्लीकी चिक्नी खालके समान कोमल चित्त रहना चाहिये। कोई उस खालको काष्टके टुकड़ेसे खुरखुरा करना चाहे तो वह नहीं कर सक्ता, इसीतरह कोई कितना कारण मिलावे साधुको नम्रता, मृदुता, सरलता, शुचिता, क्षमाभाव नहीं त्यागना चाहिये ।
(५) साधुको यदि लुटेरे आरेसे चीर भी डालें तो भी मैत्री भाव या क्षमाभावको नहीं त्यागना चाहिये।