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दूसरा भाग। आजाते हैं। काम और राग एक है, व्यापाद द्वेषका पूर्व भाव, विहिंसा मागेका भाव है। दोनों द्वेषमे आते हैं । रागद्वेष हा ससा रका मूल है, त्यागने योग्य है और वीतरागता तथा वीतद्वेषता ग्रहण करने योग्य है। ऐसा वारंवार विचार करनेसे-राग व द्वेष जब उठे तब उनका स्वागत न करनेसे उनको स्वपर बाधाकारी जाननेसे, व वीतरागता व वीतद्वषताको स्वागत करनेसे, उनको स्वपरको अबाधा कारी जाननेसे, इस तरह भेद विज्ञानका वारवार अभ्यास करनेसे रागद्वेष मिटता है और वीतरागभाव बढ़ता है। चित्तमें रागद्वेषका सस्कार रागद्वेषको बढ़ाता है। चित्तमें वीतरागता व वीतद्वेषताका सस्कार वैराग्यको बढ़ाता है व रागद्वेषको घटाता है । ___ रागभाव होनेसे अपने भीतर आकुलता होती है चिन्ता होती है, पदार्थ मिलनेकी घबड़ाहट होती है, मिलनेपर रक्षा करने की भाकुलता होती है, वियोग होनेपर शोककी आकुलता होती है। सच्चा भात्मीक भाव ढक जाता है । कर्मसिद्धातानुसार कर्मका बम होता है। रागसे पीड़ित होकर हम स्वार्थसिद्धिके लिये दूसरोंको बाधा देकर व राग पैदा करके अपना विषय पोषण करते हैं । तीन राग होता है तो भन्याय, चोरी, व्यभिचार भादि कर लेते हैं। मति रागवश विषयभोग करनेसे गृहस्थ आप भी रोगी व निर्बल होजाता है बसस्त्रीको भी रोगी व निर्बल बना देता है। इसतरह यह राग स्वपर बाधाकारी है। इसीतरह द्वेष या हिंसक भाव भी है, अपनी शातिका नाश करता है। दूसरोंकी तरफ कटुक वचनप्रहार, वक मादि करनेसे दूसरेको बाधाकारी होता है। अपनेको कर्मका बन्ध सता तरह यह दो भी सपर बागाकारी है, मोक्षमार्गर