Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ २७ गुणस्थान विवेचन सहित है और जिसके नाश होने के अनेक कारण मिलते ही हैं। आगामी काल में नरकादि दुर्गति को प्राप्त करानेवाला है। ऐसा होने पर भी वह तेरी चाह अनुसार मिलता ही नहीं, पूर्व पुण्य से होता है, इसलिए विषम है। जैसे - खाज से पीड़ित पुरुष अपने अंग को कठोर वस्तु से खुजाते हैं; वैसे ही इन्द्रियों से पीड़ित जीव, उनकी पीड़ा सही न जाय, तब किंचित् मात्र जिनमें पीड़ा का प्रतिकार-सा भासे, ऐसे जो विषय सुख, उनमें झंपापात करते हैं, वह परमार्थरूप सुख है ही नहीं। शास्त्राभ्यास करने से जो सम्यग्ज्ञान हुआ, उससे उत्पन्न आनन्द, वह सच्चा सुख है। वह सुख स्वाधीन है, आकुलता रहित है, किसी के द्वारा नष्ट नहीं होता, मोक्ष का कारण है, इसलिए विषम नहीं है। जिसप्रकार यदि खाज की पीड़ा नहीं हो तो सहज ही सुखी होता है; उसीप्रकार जब वहाँ इन्द्रियाँ पीड़ा देने के लिए समर्थ नहीं होती हैं, तब सहज ही सुख को प्राप्त होता है। इसलिए विषय सुख को छोड़कर शास्त्राभ्यास करना । यदि सर्वथा विषय न छूटे तो जितना हो सके उतना छोड़कर, शास्त्राभ्यास में तत्पर रहना। तूने विवाहादिक कार्य में बढ़ाई होना कही, वह बढ़ाई कितने दिन रहेगी? जिसके लिए महापापारंभ कर नरकादि में बहुत काल तक दु:ख भोगना होगा। उन कार्यों में तुझसे भी अधिक धन लगानेवाले बहुत हैं; अत: विशेष बढ़ाई भी होनेवाली नहीं है। शास्त्राभ्यास में तो ऐसी बढ़ाई होती है कि जिसकी सर्वजन महिमा करते हैं, इन्द्रादिक भी प्रशंसा करते हैं और परम्परा से स्वर्ग-मोक्ष का कारण है। इसलिए विवाहादिक कार्यों का विकल्प छोड़कर शास्त्राभ्यास का उद्यम रखना । सर्वथा न छूटे तो बहुत विकल्प नहीं करना । इसप्रकार काम-भोगादिक के पक्षपाती को शास्त्राभ्यास के सन्मुख किया। इसप्रकार अन्य जीव भी जो विपरीत विचार से इस ग्रन्थ के अभ्यास में अरुचि प्रगट करते हैं, उनको यथार्थ विचार करके इस शास्त्र के अभ्यास में सन्मुख होना योग्य है। सम्यग्ज्ञानचंद्रिका-पीठिका २४. प्रश्न : यहाँ अन्यमती कहते हैं कि तुमने अपने ही शास्त्र के अभ्यास करने को दृढ़ किया । हमारे मत में नाना युक्ति आदि सहित शास्त्र हैं; उनका भी अभ्यास क्यों न कराया जाय ? उत्तर : तुम्हारे मत के शास्त्रों में आत्महित का उपदेश नहीं है। कहीं शृंगार का, कहीं युद्ध का, कहीं काम-सेवन आदि का, कहीं हिंसादिक के कथन हैं। ये तो बिना ही उपदेश सहज में ही हो रहे हैं; अत: इनको तजने से हित होता है। अन्यमत तो उलटा उनका ही पोषण करता है। इसलिए उससे हित कैसे होगा? २५. प्रश्न : वहाँ कहते हैं कि ईश्वर ने ऐसी लीला की है, उसको गाते हैं, तो उससे भला होता है। उत्तर : वहाँ कहते हैं कि यदि ईश्वर को सहज सुख नहीं होगा, तब संसारीवत् लीला से सुखी हुआ। यदि वह सहज सुखी होता, तो किसलिए विषयादि सेवन या युद्धादि करता ? क्योंकि मंदबुद्धि भी बिना प्रयोजन किंचित् मात्र भी कार्य नहीं करते; इससे जाना जाता है कि वह ईश्वर हम जैसा ही है। उसका यश गाने से क्या सिद्धि होगी? २६. प्रश्न : वह फिर कहता है कि हमारे शास्त्रों में त्याग, वैराग्य, अहिंसादिक का भी तो उपदेश है। उत्तर : वह सब उपदेश पूर्वापर विरोध सहित है, कहीं विषय पोषते हैं, कहीं निषेध करते हैं; कहीं पहले वैराग्य दिखाकर, पश्चात् हिंसादिक का करना पुष्ट किया है। वह वातुलवचनवत् प्रमाण कैसे हो ? २७. प्रश्न : वह कहता है कि वेदान्त आदि शास्त्रों में तो तत्त्व का निरूपण है। उत्तर : उनको कहते हैं - नहीं, वह निरूपण प्रमाण से बाधित है, अयथार्थ है, उसका निराकरण जैनदर्शन के न्यायशास्त्रों में किया है, वहाँ से जानना; इसलिए अन्यमत के शास्त्रों का अभ्यास न करना । इसप्रकार जीवों को इस शास्त्र के अध्ययन में सन्मुख किया। उनको कहते हैं ......

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