Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ गुणस्थान भूमिका ५४ गुणस्थान विवेचन भोग रहा है । यह जानकर अपने भूतकालीन भ्रम का ज्ञान होने से संसार से भय उत्पन्न होता है; भोगों की आसक्ति कम हो जाती है एवं वैराग्यभाव पुष्ट होता है। ११. नरक-निगोदादि के दु:खों की जानकारी से भी संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्ततारूप मोक्षमार्ग प्राप्त करने का मंगल बोधपाठ मिलता है और ज्ञायक आत्मा के आश्रय की भावना उत्पन्न होती है। ____ करणानुयोग के शास्त्र में केवलज्ञानगम्य सूक्ष्म कथन होने से उसे अहेतुवाद आगम भी कहते हैं; क्योंकि इसमें प्रतिपादित प्रत्येक विषय के संबंध में हेतु देना संभव नहीं है। जैसे - गुणस्थान चौदह हैं। आप पूछोगे - गुणस्थान चौदह ही क्यों हैं ? तेरह अथवा पंद्रह क्यों नहीं हैं ? इसका उत्तर इतना ही है कि अनंत सर्वज्ञ भगवंतों की दिव्यध्वनि में चौदह गुणस्थानों का ही वर्णन आया है, अत: गुणस्थान चौदह ही हैं। आगमगर्भित युक्ति तो बता सकते हैं; परंतु जैसे द्रव्यानुयोग में बुद्धिगम्य हेतु या तर्क दे सकते हैं, वैसे करणानुयोग में हेतु या तर्क देना शक्य नहीं है। जैनधर्म परीक्षा प्रधानी है। - यह कथन मात्र द्रव्यानुयोग की अपेक्षा से है। अन्य तीनों अनुयोगो में केवलीभगवान की आज्ञा की ही मुख्यता है। प्रथमानुयोग के पुराणों में वर्णित शलाका पुरुष त्रेसठ होते हैं । भरतऐरावत क्षेत्र के अवसर्पिणी के चतुर्थ तथा उत्सर्पिणी के तीसरे काल में तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं। विदेह क्षेत्र में हमेशा भरत क्षेत्र के अवसर्पिणी के चौथे काल की आदि जैसा काल ही वर्तता है। वहाँ कम से कम बीस तीर्थंकर सदा काल विद्यमान रहते हैं। चक्रवर्ती बारह होते हैं, इत्यादि कथनों की परीक्षा नहीं हो सकती। जैसी भगवान की आज्ञा शास्त्र में लिपिबद्ध है, वैसा ही मानना अनिवार्य है। करणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार चौदह मार्गणायें, चौदह जीवसमास, मेरू पर्वत, असंख्यात द्वीप एवं समुद्र, नरक-स्वर्ग संबंधी वर्णित दुःख तथा सुख का स्वरूप - इन सबका आज्ञानुसार ही श्रद्धान करना अनिवार्य है। चरणानुयोग के शास्त्रों के अनुसार आलू, प्याज, शकरकंद, मूली, लहसुन आदि जमीकंद के राई जितने टुकड़े में अनंत बादर निगोदिया जीव हैं; अत: वे अभक्ष्य हैं। जीवों की अनन्तता की परीक्षा कैसे संभव है ? यहाँ भी आज्ञा ही शिरोधार्य है। आज्ञानुसार ही इन पदार्थों का त्याग करना हमारा कर्त्तव्य है। द्रव्यानुयोग के शास्त्रों के अनुसार पंचास्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नव पदार्थ, हितकारी-अहितकारी भाव, बंधमार्ग, मोक्षमार्ग संबंधी सत्यअसत्य का निर्णय अपनी बुद्धि के अनुसार युक्ति/परीक्षा द्वारा कर सकते हैं। गुणस्थान की परिभाषा जानने के पहले ही हमारे मन में एक प्रश्न उत्पन्न होता है, जो निम्न प्रकार है - १. प्रश्न : हमें गुणस्थान में प्रवेश करना है या गुणस्थान के ज्ञान में ? उत्तर : सर्व संसारी जीवों का गुणस्थान में प्रवेश तो अनादि काल से है ही; क्योंकि संसारी जीव गुणस्थान से रहित होता ही नहीं। संसारी जीव किसी ना किसी गुणस्थान में नियम से रहता ही है, भले वह ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी । मात्र सिद्ध जीव ही गुणस्थान से रहित होते हैं; क्योंकि वे स्वभाव साधना से गुणस्थानातीत हो गये हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सिद्ध जीव वर्तमान काल में गुणस्थानातीत हो गये हैं; परन्तु वे भी पहले संसार अवस्था में गुणस्थानसहित ही थे। प्रत्येक संसारी जीव भी आत्मस्वभाव की अपेक्षा से तो गुणस्थानातीत, त्रिकाल, शुद्ध, सहजानन्दमय भगवान आत्मा ही है; परन्तु यह अध्यात्म का विषय है, जो यहाँ गुणस्थान के कथन के समय गौण है; त्रिकाली आत्मस्वभाव की यहाँ अभी विवक्षा नहीं है। जहाँ जिसकी विवक्षा होती है, उसकी ही चर्चा करना विवक्षित विषय समझने के लिये उपयोगी होता है। तात्पर्य यह है कि सर्व संसारी जीव गुणस्थान सहित ही होते हैं। इसलिए हमें-आपको गुणस्थान में प्रवेश नहीं करना है; अपितु गुणस्थान विषयक ज्ञान में प्रवेश करना है।

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