Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 49
________________ सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान गुणस्थान विवेचन १.शंका - सासादन गुणस्थानवाला जीव मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से मिथ्यादृष्टि नहीं है, समीचीन रुचि का अभाव होने से सम्यग्दृष्टि भी नहीं है, तथा इन दोनों को विषय करनेवाली सम्यग्मिथ्यात्वरूप रुचि का अभाव होने से सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं हैं। इनके अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं; क्योंकि समीचीन, असमीचीन और उभयरूप दृष्टि के आलम्बनभूत वस्तु के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पाई नहीं जाती है। इसलिये सासादन गुणस्थान असत्स्वरूप ही है। अर्थात् सासादन नाम का कोई स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं मानना चाहिये ? समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि सासादन गुणस्थान में विपरीत अभिप्राय रहता है; इसलिये उसे असदृष्टि ही समझना चाहिये। २. शंका - यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिये, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है ? समाधान - नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्र का प्रतिबन्ध करनेवाले अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दसरे गणस्थान में पाया जाता है। इसलिये द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है। किंत मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है। इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं; किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं। ३. शंका - पूर्व के कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिथ्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई है ? समाधान - ऐसा नहीं है; क्योंकि सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है। विशेषार्थ - सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र मानने का फल जो अनन्तानुबन्धी की द्विस्वभावता बतलाई गई है, वह द्विस्वभावता दो प्रकार से हो सकती है। एक तो अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों की प्रतिबन्धक मानी गई है और यही उसकी द्विस्वभावता है। इसी कथन की पुष्टि यहाँ पर सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र मानकर की गई है। दूसरे, अनन्तानुबन्धी जिसप्रकार सम्यक्त्व के विघात में मिथ्यात्व प्रकृति का काम करती है, उसप्रकार वह मिथ्यात्व के उत्पाद में मिथ्यात्वप्रकृति का काम नहीं करती है। इसप्रकार की द्विस्वभावता को सिद्ध करने के लिए सासादन गुणस्थान को स्वतन्त्र माना है। दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है; जिससे कि सासादन गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता। तथा जिस अनन्तानुबन्धी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करनेवाला होने से चारित्रमोहनीय का भेद है। इसलिये दूसरे गुणस्थान को मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है। ४. शंका - अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक होने से उसे उभयरूप (सम्यक्त्वचारित्रमोहनीय) संज्ञा देना न्यायसंगत है? समाधान - यह आरोप ठीक नहीं; क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनन्तानुबन्धी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबन्धक माना ही है। फिर भी परमागम में मुख्य नय की अपेक्षा इसतरह का उपदेश नहीं दिया है। सासादन गुणस्थान विवक्षित कर्म के अर्थात् दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के विना उत्पन्न होता है, इसलिये वह पारिणामिक है। सासादन जो सम्यग्दृष्टि, वह सासादनसम्यग्दृष्टि है। ५. शंका - सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से दूषित है, इसलिये उसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बन सकता है ? समाधान - नहीं; क्योंकि पहले वह सम्यग्दृष्टि था, इसलिये भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। कहा भी है - सम्यग्दर्शनरूपी रत्नगिरि के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि के अभिमुख है, अतएव जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है; परंतु मिथ्यादर्शन की प्राप्ति नहीं हुई है, उसे सासन अर्थात् सासादनगुणस्थानवर्ती समझना चाहिए।

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