Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 129
________________ गुणस्थान विवेचन २५६ सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - क्षायिक सम्यक्त्व ही परमावगाढ़रूप नाम को प्राप्त होता है। सामान्य दृष्टि से चौथे गुणस्थान में प्रगट होनेवाला सम्यक्त्व और सिद्ध-अवस्था का सम्यक्त्व - दोनों समान हैं, यह कथन सत्य है। इसी विषय को विशेष अपेक्षा सोचते हैं तो अंतर का भी हमें स्वीकार करना चाहिए। ज्ञानगुण की अनंतता व्यक्त हो गयी, चारित्र भी परिपूर्ण शुद्ध हो गया, ऐसे अनेक सहचर गुणों की विशेषता / पर्यायों से सम्यक्त्व में भी विशेषता कही जाती है; उसे भी मानना ही चाहिए; क्योंकि एक गुण की पर्याय, भेद अपेक्षा अन्य गुण की पर्याय से कथंचित् भिन्न होने पर भी सर्वथा भिन्न तो है नहीं। एक आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनंत गुण और उनकी अनंत पर्यायें अविरोधरूप से रहते हैं । सात तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान की अपेक्षा से चौथे गुणस्थान का सम्यक्त्व और सिद्ध भगवान का सम्यक्त्व समान है। इस कथन को सुरक्षित रखते हुए यह सर्व समझने की आवश्यकता है। सम्यक्त्व एवं ज्ञान गुण की पर्यायों में लक्षण की अपेक्षा से कुछ परिवर्तन न होने पर भी दोनों अथवा अनंत गुणों के सहचारीपने के कारण जो परस्पर में आरोपित व्यवहार होता है उसे भी यथास्थान - यथायोग्य रीति से स्वीकारना उचित है। जैसे आँखें बंद करके चलना और आँखों से देखते हुए चलना - दोनों अवस्थाओं में चलने का काम तो पैरों से ही होता है; तथापि आँखों ख हुए पैरों से चलने में जैसी विशेषता होती है, वैसी विशेषता आँखों के बिना नहीं हो सकती। उसीप्रकार ज्ञानगुण के अनंतरूप परिणमन के साथ सम्यक्त्व आदि गुणों में विशेषता कही जाती है, उसका भी स्वीकार करना चाहिए। चारित्र अपेक्षा विचार - यहाँ पर परम यथाख्यात चारित्र होता है। बारहवें गुणस्थान में ही चारित्र यथाख्यात हो गया है, तथापि तेरहवें में अनंतज्ञान के कारण उसमें और विशेषता कही गयी है। एक गुण का रूप अन्य गुण के परिणाम में विशिष्ट रीति से रहता ही है। चौदहवें गुणस्थान में योगजन्य आत्मप्रदेशों के कंपनपने का भी अभाव हो जाने से गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान २५७ चारित्र में और विशेषता आना स्वाभाविक ही है। अब यहाँ सिद्धअवस्था में तो चार अघाति कर्मों का भी नाश हो गया है; इसलिए चारित्र की निर्मल परिणति में अति विशिष्टता आयी है। वास्तविक देखा जाय तो अघाति कर्म भी घाति कर्म जैसा ही काम करते हैं। ११४. प्रश्न : अघाति कर्मों को आप घाति कर्म क्यों कहते हो ? उत्तर : भाईसाहब ! अनंत ज्ञानादि स्वभाव पर्यायों के व्यक्त होने पर भी वे कर्म सिद्ध अवस्था की प्राप्ति में साक्षात् बाधा डालने में निमित्त बन जाते हैं; इस अपेक्षा की मुख्यता से हमने अघाति को भी घाति कहा है। ११५. प्रश्न: जैसे - यथाख्यात चारित्र में तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में परिवर्तन/ बदल होता है अर्थात् परम यथाख्यात चारित्र हो जाता है। वैसे ही क्या सुख में भी कुछ बदल होता है ? उत्तर : हाँ, सुख में भी अवश्य बदल होता है- जो सुख क्षीणकषाय गुणस्थान में मात्र पूर्ण हो गया है, वह सुख सयोग अयोग गुणस्थान में केवलज्ञान की अपेक्षा अनंत सुख कहा गया है और अब इस सिद्धावस्था में वेदनीय कर्म के अभाव से वही अनंतसुख अव्याबाध अनंतसुख कहा जाने लगा । सुख तथा ज्ञान विषय का खुलासा चिद्विलास पेज क्रमांक ३७ पर निम्न प्रकार दिया है - ज्ञान का सुख युगपत होता है और परिणामों का सुख समयमात्र का है अर्थात् समय-समय के परिणाम जब आते हैं, तब सुख व्यक्त होता है। भविष्यकाल के परिणाम ज्ञान में आए; परन्तु व्यक्त हुए नहीं । अतः परिणाम का सुख क्रमवर्ती है और वह तो प्रत्येक समय में नवीन नवीन होता है। ज्ञानोपयोग युगपत् है, वह उपयोग अपनेअपने लक्षण सहित है। अतः परिणाम का सुख नवीन है और ज्ञान का सुख युगपत है। ११६.प्रश्न : केवलज्ञान होने पर भी सुख के अव्याबाध होने में क्या बाधा है ? उत्तर : वेदनीय कर्म की सत्ता और उसका उदय - ये ही अव्याबाध होने में बाधक निमित्त होते हैं। सुख के

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