Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 128
________________ २५५ गुणस्थानातीत : सिद्ध भगवान इस दुःखमय संसार अवस्था से कुछ जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने पर भी अनेक भवों में कठोर और अप्रतिहत साधना करने के बाद ही सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं। अनेक जीव मात्र अनेक वर्षों के साधना से ही सिद्ध हो जाते हैं। विशिष्ट महापुरुष मात्र एक अंतर्मुहूर्त में ही अनंत, ध्रुव, अविचल, पंचमगति को प्राप्त कर लेते हैं। ११३. प्रश्न : हम मात्र अंतर्मुहर्त में ही सिद्ध होना चाहते हैं। हमें कठोर साधना सुहाती नहीं है और मुक्ति के लिए हम अधिक इंतजार भी नहीं करना चाहते; अतः अति शीघ्र मुक्त होने का सुगम साधन बताइये न! उत्तर : मोक्ष-प्राप्ति का वास्तविक उपाय तो एक मात्र निज शुद्धात्मस्वभाव का निर्विकल्प रीति से स्वीकार अर्थात् अनुभवन एवं लीनता करना ही है, जिसे हमने गुणस्थान के प्रकरण में अनेक बार कहा है। जिनवाणी माता भी हमें चारों अनुयोगों में यत्र तत्र सर्वत्र इसी विषय को समझा रही है। भाईसाहब ! आत्मसाधना के परम पवित्र कार्य के आदि, अंत अथवा मध्य में कहीं भी कष्ट, दुःख या परेशानी नहीं है। सब असहा परेशानियों को समाप्त करने का एकमात्र सही उपाय पर और परभावों से निरपेक्ष आत्म-साधना ही है। यही एक सुगम व सहज साधन है। जब तक निजात्मस्वभाव का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक इस तरह के अनेक विकल्प/प्रश्न होते ही रहेंगे। इन सबके निराकरण के लिए सर्वज्ञ प्रणीत आगम का अध्ययन मनन-चिंतनादि करना और आत्मज्ञ लोगों का सत्समागम करना ही एक शरण है, आधार है और दूसरा कोई उपाय नहीं है। सब आत्मसाधक यथायोग्य मात्र एक अंतर्मुहूर्त का आत्म-ध्यान / आत्मलीनता करके ही मुक्ति की प्राप्ति करते हैं, इसमें कुछ मतभेद नहीं है। गुणस्थानातीत : सिद्ध भगवान यद्यपि इसी विशिष्ट अंतर्मुहूर्त पुरुषार्थ की पूर्णता और उसके फल की प्राप्ति के लिए आदिनाथ जैसे मुनिराज को एक हजार वर्ष लगे, बाहबली मुनिवर को एक वर्ष लगा और भरत चक्रवर्ती के लिए एक अंतर्मुहूर्त की ही मुनि-अवस्था की साधना पर्याप्त रही; तथापि पुरुषार्थ तो समान ही रहा। सही देखा जाय तो चक्रवर्ती की अव्रत अवस्था में भी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार यथायोग्य आत्म-साधना का पुरुषार्थ सतत चलता ही रहता है; परन्तु स्थूल/बाह्य दृष्टिधारी जगत उसे स्वीकारता नहीं है। जब लौकिक जीवन में भी कदाचित् अपनी इच्छा की पूर्ति होती है तो थोड़ीसी आकुलता मिटती है अर्थात् हमें भी तत्काल ही अल्प सुख का निराकुलता का आभास होता है, तब जहाँ सर्व प्रकार की सर्वथा इच्छाजन्य आकुलता नष्ट हो जाती है, वहाँ अनंत सख नियम से होगा ही। इसतरह अनुमान से भी सर्व आकुलता रहित सिद्ध जीवों के अनंत सुखी होने का यथार्थ अनुमान ज्ञान हम कर सकते हैं। अनंत सर्वज्ञ प्रणीत आगम परंपरा से तो हमें यह मान्य ही है कि सिद्ध अनन्त सुखी हैं। आचार्यश्री नेमिचंद्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६८ में गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान की परिभाषा निम्नप्रकार दी है - अद्वविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अद्वगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥ ज्ञानावरणादि अष्ट कर्म रहित, अनंतसुखामृतस्वादि, परम शांतिमय, मिथ्यादर्शनादिसर्व विकाररहित-निर्विकार, नित्य, सम्यक्त्व आदि आठ प्रधान गुण युक्त, अनंत शुद्ध पर्यायों से सहित, कृतकृत्य, लोकाग्रस्थित, वीतरागी, सर्वज्ञ निकल परमात्मा को सिद्ध भगवान कहते हैं। नाम अपेक्षा विचार - गुणस्थानातीत सिद्ध भगवान को ही व्यवहारातीत, परमशुद्ध, कार्यपरमात्मा, लोकाग्रवासी, संसारातीत, निरंजन, निराकार, निष्काम, निष्कर्म, साध्यपरमात्मा, परमसुखी, ज्ञानाकारी, ज्ञानशरीरी, चिरवासी, अशरीरी इत्यादि अनेक नाम हैं। इन्हें देहमुक्त भी कहते हैं।

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