Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 139
________________ औपशमिक सम्यक्त्व २७७ परिशिष्ट -५ मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म मिथ्यात्व से रहित स्थान औपशमिक सम्यक्त्व सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्यादृष्टि करणलब्धि प्राप्त जीव यहाँ आते ही मिथ्यात्व कर्म के रहितपने के कारण क्षायिकसम्यक्त्वके अधस्तन समान निर्मलभाव रूप औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। का काल ( अनिवृत्तिकरणकाल-- इस समय जीव) अपूर्वकरणकाल - मिथ्यादृष्टि रहता है। अध:करणकाल - -स्थि औपशमिक सम्यक्त्व यह बड़ी रेखा मिथ्यात्व कर्म की है। बीच में पोल अर्थात् खाली जगह मिथ्यात्व कर्म के उदय से रहित दिखाई गई है। इस स्थान में भी पहले मिथ्यात्व कर्म की सत्ता थी। जबसे सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्यादृष्टि करणलब्धि प्राप्त जीव अधःकरण, अपूर्वकरण परिणामों से आवश्यक कार्य करता है। पश्चात् अनिवृत्तिकरण परिणाम के कुछ काल व्यतीत होने के बाद मिथ्यात्व कर्म के कुछ निषेक प्रतिसमय दीर्घ काल के बाद उदय आने योग्य मिथ्यात्व के उपरितन स्थिति में जाते रहते हैं और कुछ निषेक अधस्तन स्थिति में जाकर मिल जाते हैं। यह क्रम अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय पर्यंत चलता रहता है। इतनी अवधि में/अंतर्मुहूर्त काल में मिथ्यात्व कर्म का उदय आते रहने से अधस्तन स्थिति के मिथ्यात्व कर्म, उदय में आकर मिल जाते हैं और जीव मिथ्यात्व कर्म से रहित स्थान में पहुँचता है। तथा वहाँ मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं होने से एवं श्रद्धा गुण की सम्यक्त्वरूप पर्याय प्रगट होने के कारण क्षायिक सम्यक्त्व के समान यथायोग्य एक अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। • सादि मिथ्यादृष्टि हो तो अनंतानुबंधी के ४ एवं दर्शनमोहनीय के ३ कर्म कुल मिलाकर ७ कर्मों का उपशम करता है। अनादि मिथ्यादृष्टि हो तो अनंतानुबंधी की ४ और मिथ्यात्व १-कुल ५कर्मों का उपशम करता है। कदाचित् सादि मिथ्यादृष्टि भी ५,६ या ७ का उपशम करता है। औपशमिक सम्यक्त्व के उत्पत्ति के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व कर्म के १. मिथ्यात्व २. सम्यग्मिथ्यात्व ३. सम्यग्प्रकृति - ऐसे ३ टुकड़े हो जाते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व की प्रथम उत्पत्ति चौथे, पाँचवें अथवा सातवें गुणस्थान में से किसी भी एक गुणस्थान में होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के संबंध में मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र पृष्ठ २६४ का निम्न कथन भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है - "इसप्रकार अपूर्वकरण होने के पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। उसका काल अपूर्वकरण के भी संख्यातवें भाग है। उसमें पूर्वोक्त आवश्यक सहित कितना ही काल जाने के बाद अन्तरकरण करता है, जो अनिवृत्तिकरण के काल पश्चात् उदय आने योग्य ऐसे मिथ्यात्वकर्म के मुहूर्तमात्र निषेक उनका अभाव करता है; उन परमाणुओं को अन्य स्थितिरूप परिणमित करता है। तथा अन्तरकरण करने के पश्चात् उपशमकरण करता है। अन्तरकरण द्वारा अभावरूप किये निषेकों के ऊपरवाले जो मिथ्यात्व के निषेक हैं, उनको उदय आने के अयोग्य बनाता है। इत्यादिक क्रिया द्वारा अनिवृत्तिकरण के अन्तसमय के अनन्तर जिन निषेकों का अभाव किया था, उनका काल आये, तब निषेक के बिना उदय किसका आयेगा ? इसलिये मिथ्यात्व का उदय न होने से प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अनादि मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय की सत्ता नहीं है, इसलिये वह एक मिथ्यात्वकर्म का ही उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है। तथा कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फिर भ्रष्ट होता है।" "कोई जीव सम्यक्त्व पाकर फिर भ्रष्ट होता है" - इस उपरोक्त वाक्यांश से प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव नियम से मिथ्यात्व में जाने का नियम नहीं है; यह विषय स्पष्ट होता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 137 138 139 140 141 142